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विज्ञानाद्वैतवादपूर्वपक्षः
२१३ जब हमारे तीनों भाईयों ने-वैभाषिक, सौत्रान्तिक और योगाचार नेक्रमशः पदार्थों को क्षणिक माना है और आगे उन्हें प्रत्यक्षगम्य अनुमानगम्य कहते हुए योगाचार ने उन दृश्य पदार्थों की सत्ता ही नहीं मानी, तब हमें तो लगता है कि ज्ञान भी पदार्थ नहीं है, जब जानने योग्य वस्तु नहीं है तो जाननेवाले ज्ञानकी भी क्या आवश्यकता है, यही बात हमारे प्रमुख प्राचार्य नागार्जुन ने कही है।
"न सन् नासन् न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटिविनिमुक्त तत्त्वं माध्यमिका विदुः" ॥ १ ॥ जो भी कुछ ज्ञान या घटपटादिरूप तत्त्व है वह सतु नहीं है, असत् नहीं है, उभयरूप नहीं है और न अनुभयरूप ही है, वह तो सर्वथा चारों ही विकल्पों से अतीत है, इससे सर्वशून्यरूप वाद ही प्रतीत होता है।
"अपरप्रत्ययं शांतं प्रपंचैरप्रपंचितम् ।
निर्विकल्पमतानार्थमेतत् तत्त्वस्य लक्षणम् ।। १८ ।। तत्त्व अपर प्रत्यय है-एक के द्वारा दूसरे को उसका उपदेश नहीं दे सकते हैं, शान्त है-नि:स्वभाव है, शब्दके प्रपंच से रहित है, निर्विकल्प है-चित्त इसे जान नहीं सकता है, तथा यह नाना अर्थों से रहित है।
"अनिरोधमनुत्पादमनुच्छेदमशाश्वतम् ।
अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम् ॥ १ ॥ परमार्थतत्त्व अनिरोध, अनुत्पाद, अनुच्छेद, प्रशाश्वत, अनेकार्थ, अनानार्थ, अनागम और अनिर्गम है। इस प्रकार इन अतिरोध आदि पदों से निश्चित होता है कि तत्त्व के विषयमें कुछ भी नहीं कह सकने से-वह है ही या नहीं है-ऐसा नहीं कह सकने के कारण शून्यवाद सिद्ध होता है।
* पूर्वपक्ष समाप्त *
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