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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
तथा ग्राहक - ग्रहण करने वाले पुरुष या बुद्धि रूप भेद दिखायी देता है । जैसा कि कहा है
"अविभागोऽपि बुद्धधात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदानिव दृश्यते ॥”
- प्रमाणवार्तिक ३/३५४
भाग रहित एक ज्ञानमात्र ही वस्तु है, किन्तु विपर्यासबुद्धिवालों को अनेक अंश- भागरूप जगत् प्रतीत होने लगता है- यह ग्राह्य है यह ग्राहक है इत्यादि भेद प्रतिभासित होते हैं, इससे सिद्ध होता है कि यह दृश्यमान जगत् मात्र काल्पनिक है, क्योंकि अब ग्राह्य जो ग्रहण करने योग्य पदार्थ है वह ही नहीं है - ज्ञान ही स्वयं ग्राह्य हुआ करता है - तो उसके सिवाय अन्य की बात रहती ही कहां है, ज्ञान के द्वारा कोई जानने योग्य या अनुभव करने योग्य पदार्थ ही नहीं है । यही बात हमारे प्रमाणवार्तिक नामक ग्रन्थ में ३।३५४ पर लिखा है ।
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"नान्योऽनुभाव्यो बुद्धचास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ।। ३५४ ।”
बुद्धि-ज्ञान के द्वारा अनुभव करने योग्य कोई पदार्थ नहीं है तथा उस बुद्धि को जानने वाला भी कोई अन्य नहीं है, इस प्रकार ग्राह्य ग्राहक भाव का प्रभाव होने से मात्र एक बुद्धि ही स्वयं प्रकाशित हो रही है । जब हमारे भाई सौत्रान्तिक बाह्य पदार्थ को प्रत्यक्ष होना नहीं मानते तब उन पदार्थों की सत्ता ही काहे को मानना, जब बाह्य पदार्थों के विषय में विचार करते हैं तब प्रतिभास तो अनुभव में आता है, किन्तु पदार्थ तो उससे सिद्ध नहीं हो पाते हैं, अतः एक ज्ञान ही सब कुछ है । वास्तव में देखा जाय तो ज्ञानमें ये प्रतीत होनेवाले नील पीत प्रथवा घट पट आदि आकार हैं, वे सब के सब असत्य हैं, हां, हमारे सगे भाई जो चित्राद्वैतवादी हैं उन्होंने तो ज्ञान के इन नील आदि आकारों को सत्य माना है, किन्तु बाह्य पदार्थों को तो हम लोग मानते ही नहीं । ग्राह्य ग्राहक का अभाव होने से घट पट आदि बहिरंग पदार्थ तथा ग्राहक ज्ञाता पुरुष आदि पदार्थों का अभाव ही सिद्ध होता है और अन्त में एक ज्ञानमात्र तत्त्व अबाधितपने से सिद्ध होता है ।
बौद्ध का चौथा भेद माध्यमिक है, यह शून्यवादी है, यह अपना मन्तव्य इस प्रकार से प्रकट करता है
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