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विज्ञानाद्वैतवाद-पूर्वपक्ष बौद्ध के चार भेदों में से एक योगाचार नामका जो बौद्ध है वह बाह्य पदार्थों की सत्ता स्वीकार नहीं करता है, वह विज्ञप्तिमात्र तत्त्व मानता है, इसीलिये इसे विज्ञानाद्वैतवादी भी कहा जाता है, उसी के मत का यहां पूर्वपक्ष उपस्थित किया जा रहा है
दृश्यं न विद्यते बाह्यं चित्तं चित्रं तु दृश्यते । देहभोग प्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम् ॥
-लंकावतार सूत्र ३/३२ ये बाह्य में दिखाई देने वाले पदार्थ वास्तविक नहीं हैं, मात्र काल्पनिक हैं, सिर्फ चित्त अर्थात् ज्ञान ही अनुभव में आता है, जो स्वयं अनेक रूपता को धारण किये हुए है, वही देह और भोगों का आधार है, अर्थात् ज्ञान ही सब कुछ है, इसलिये मैं ज्ञानमात्र तत्त्व का कथन करता हूं । यद्यपि बाह्य में पदार्थों की सत्ता नहीं है तो भी अनादि से चली आई अविद्या की वासना के कारण विज्ञान का बाह्यपदार्थरूप से प्रतिभास होता है, जैसे बाह्य आकाश में दो चन्द्र नहीं होते हुए भी तिमिर रोगी को दो चन्द्र दिखाई देते हैं, उसी प्रकार बाह्य पदार्थ की प्रतीति अविद्या के कारण होती है, अतः वह भ्रान्त असत्य है, ग्राह्य अर्थात् ग्रहण करने योग्य और ग्राहक अर्थात् ग्रहण करने वाला ये दोनों ही बुद्धि या ज्ञान रूप ही हैं। कहा भी है
चित्तमा न दृश्योऽस्ति द्विधा चित्तं हि दृश्यते । ग्राह्य-ग्राहकभावेन शाश्वतोच्छेदवर्जितम् ॥
-लंकावतार सूत्र ३/६३ ज्ञान मात्र ही तत्व है, अन्य कोई दृश्यमान पदार्थ नहीं है, ज्ञान ही दो भेदों में प्रतिभासित होने लग जाता है, ग्राह्य और ग्राहक ज्ञान ही है, वही शाश्वत, उच्छेद से रहित है, यद्यपि वह ज्ञान या बुद्धि एक या अविभागी है, फिर भी विपरीत दृष्टि वालों को अर्थात् अल्पबुद्धि वाले संसारी प्राणियों को अनेक ग्राह्य-घट पट-गृह आदि रूप
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