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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
ल्लेखीज्ञान को कल्पना कहा जावे तो अभेदज्ञान में सत्तासामान्यरूप जाति का उल्लेखी होने से कल्पनारूपता का प्रसङ्ग प्राप्त होगा, असत् अर्थ का ग्राहक ज्ञान कल्पना है तो ऐसी कल्पना भेद ज्ञान में है नहीं, अन्य को अपेक्षा ज्ञान में है नहीं वह अपेक्षा व्यवहार में होती है; न कि ज्ञान में । उपचार मात्र कल्पना भी ज्ञान में तभी बने जब कि कहीं मुख्य हो तो, जैसे कि सच्चा सिंह है तभी उसका बालक उपचार करते हैं, वैसे ही भेद सच्चा हो तो उसका कहीं उपचार होकर कल्पना होगी ।
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इसी प्रकार अद्वैतग्राहक अनुमानादि प्रमाण भी विचार करने पर गलत ठहरते हैं, क्योंकि अनुमान में दिया गया प्रतिभासमानत्व हेतु द्वंत को सिद्ध करता है, और कुछ नहीं तो साध्य और साधन हेतु - या प्रतिपाद्य तथा प्रतिपादक द्वैत तो मानना ही होगा, आगम में जो ब्रह्मा को अद्व ेतरूप दिखाया है सो वह एक प्रतिशयोक्ति या स्तुति है, ऐसे स्तुतिपरक वाक्य को सर्वथा सच मानो तो फिर पत्थर तैरता है, अन्धा माला पिरोता है ऐसे अतिशयपरक वाक्य भी सत्य होंगे, ब्रह्मा जगत रचना काहे को करता है यह तो समझ में आता ही नहीं है, यदि वह दया से करता तो नारकी आदि दुःखी प्राणियों को क्यों बनाता, यदि प्राणी के भाग्य के अनुसार वह बनाता तो स्वतंत्र वह कहां रहा, जगत रचना के पहिले प्रारणी ही नहीं थे तो उसे दया किसके ऊपर उत्पन्न हुई, इत्यादि कथन कुछ भी सत्य नहीं जचता, अविद्या भी बड़ी पृथक् है तो द्व ेत होता है और पृथक् है तो वह कैसे ब्रह्मरूप न मान कर वास्तविक चेतन अचेतनादि
विचित्र बला है, वह ब्रह्मा से नष्ट होगी, इसलिये विश्व को अनेक रूप मानना चाहिये ।
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