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________________ ब्रह्माद्वैतवादसारांश २०६ है वह प्रतिभास के स्वरूप की तरह प्रतिभास के अन्दर शामिल है, सारे जगत के पदार्थ प्रतिभासित तो होते ही हैं, अतः वे प्रतिभास के अन्दर शामिल हैं । प्रतिभास ही तो ब्रह्म है । आगम में तो जगह जगह पर उस परम ब्रह्म को ही सिद्ध किया गया है, तद्वत की सर्वत्र सिद्धि है किन्तु जो भेद अर्थात् द्वैत को मानता है उसकी वहां खूब निन्दा की गई है, द्वतवादी पदार्थ को भिन्न भिन्न मानते हैं सो क्या वे उन्हें देशभेद से भिन्न मानते हैं ? या काल भेद से भिन्न मानते हैं ? या कि प्राकार भेद से भिन्न मानते हैं ? देश भेद कैसे मालूम पड़े क्योंकि वस्तु अभिन्न है तो उसका देश की अपेक्षा भेद सच्चा नहीं रहेगा, काल भेद को कौन जाने, प्रत्यक्ष तो वर्तमान के पदार्थ को जानता है, वह उसके भेद को कैसे ग्रहण करे । ऐसे ही आकार भेद मानना व्यर्थ है, सच बात तो यह है कि भेद तो है ही नहीं, सिर्फ अविद्या के कारण वह झूठमूठ ही मालूम पड़ता है, यह अनादि अविद्या तत्त्वश्रवण मननादिरूप अविद्या के द्वारा प्रलीन हो जाती है, विद्या से अविद्या कैसे नष्ट हो ऐसी शंका भी गलत है, क्योंकि विष विष का मारक देखा गया है ? जैन – उपरोक्त ब्रह्मवादी का कथन उन्मत्त की तरह प्रतीत होता है, प्रत्यक्ष से प्रभेद न दिखकर उल्टे प्रांख खोलते ही नील पीत घट पट आदि अनेक विकल्प भेद द्वंतरूप ज्ञान ही पैदा होता है न कि अभेद | अद्वैतरूप, यदि जबर्दस्ती मान लेवें कि प्रभेद ग्राहक प्रत्यक्ष है तो भी वह अनेकों के प्रभेद को जानता है या एक के अभेद को जानता है या सामान्यरूप से प्रभेद को जानता है ? यदि अनेकों के अभेद को वह ग्रहण करता है तो अनेक तो उसने जान ही लिया, नहीं तो वह उनके अभेद को कैसे ग्रहण करता ? एक व्यक्ति में तो प्रभेद क्या और भेद क्या कुछ भी नहीं बनता, अद्वैतवादी कहते हैं कि भेद तो कल्पनारूढ़ है वास्तविक नहीं सो कल्पना का क्या स्वरूप है; इस पर विचार करें - स्मरण के बाद ज्ञान का होना कल्पना है, या शब्दाकारानुविद्धत्व कल्पना है, अथवा असत् अर्थ को विषय करना, जात्याद्युल्लेखरूप होना, अन्य की प्रपेक्षा लेकर वस्तु को विषय करना या उपचार मात्र होना कल्पना है ? स्मरण के बाद होने वाला ज्ञान यदि कल्पनारूप माना जावे तो अभेद ज्ञान भी स्मरणानन्तर होने से कल्पना रूप माना जायगा, ज्ञान में शब्दाकारानुविद्धता तो है ही नहीं, इसका स्पष्टीकरण शब्दात के प्रकरण में हो चुका है । जात्याद्यु २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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