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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्यातीतस्यापि बाध्यत्वम्-यदस्मिन् मिथ्यात्वापादनम् ; क्वचित्पुनः प्रवृत्तिप्रतिषेधोऽपि फलम्, अन्यथा रजतज्ञानस्य बाध्यत्वासम्भवे शुक्तिकादौ प्रवृत्तिरविरता प्राप्नोति । कथं चैवं वादिनोऽविद्याविद्ययोर्बाध्यबाधकभावः स्यात् तत्राप्युक्तविकल्पजालस्य समानत्वात् ?
__ यच्च समारोपितादपि भेदादित्याद्य क्तम् ; तदप्ययुक्तम् ; प्रात्मनः सांशत्वे सत्येव भेदव्यवस्थोपपत्त निरंशस्यान्तर्बहिर्वा वस्तुनः सर्वथाप्यप्रसिद्ध रित्यात्मा ताभिनिवेशं परित्यज्यान्तर्बहिश्वानेकप्रकारं वस्तु वास्तवं प्रमाणप्रसिद्धमुररीकर्त्तव्यम् ।
बताया जावे तो सीप में ग्रहण करने की प्रवृत्ति न रुक सकेगी। अतवादी इस प्रकार यदि बाध्यबाधकभाव का अभाव करेंगे तो फिर आपके यहां विद्या और अविद्या में भी बाध्य बाधक भाव कैसे बनेगा, क्योंकि वहां पर भी हम ऐसे ही प्रश्न करेंगे कि अविद्या के द्वारा ज्ञान का अपहार होता है कि विषय का या कि फल का इत्यादि, अतः विपरीत आदि ज्ञान बाधक प्रमाण के द्वारा बाधित होते हैं यह कथन अखंडित ही है।
अद्वैतवादी ने जो ऐसा कहा है कि सुख, दुःख, बंध और मोक्ष प्रादि भेद अद्वैत में भी समारोप भेद से बन जावेंगे इत्यादि-सो यह कथन अयुक्त है, क्योंकि जब तक आत्मा में सांशता नहीं मानी जाती है तब तक मात्र कल्पना से भेद व्यवस्था होना सर्वथा अशक्य है। वस्तु चाहे चेतन हो चाहे अचेतन हो वह कोई भी निरंश नहीं है, अतः ब्रह्माद्वैतवादी को अपने ब्रह्म द्वैत मनका जो हठाग्रह है उसे छोड़ देना चाहिये और सभी चेतन अचेतन पदार्थों को वे वास्तविक रूप से अनेक प्रकार वाले हैं ऐसी प्रामाणिक बात स्वीकार कर लेना चाहिये ।
* ब्रह्माद्वैतवाद का खंडन समाप्त *
ब्रह्माद्वैतके खंडनका सारांश ब्रह्माद्वतवादी का कहना है कि एक अविकल्प प्रत्यक्ष प्रमाण सभी को एकत्व रूप से सिद्ध करता है, मतलब-सारा विश्व एकमात्र ब्रह्ममय है और वह आंख खोलते ही प्रतीति में आता है, हां पीछे से जो कुछ भेद दिखाई देता है वह तो अविद्या का विलास है, अनुमान से भी एक ब्रह्म सिद्ध होता है, जो प्रतिभासित होता
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