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ब्रह्माहतवाद!
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सत्येतरत्वव्यवस्था, सर्वत्र सर्वदा सर्वस्य वा ? प्रथमपक्षे-सत्येतरत्वव्यवस्थासङ्करः; मरीचिकाचक्रादौ जलादिसंवेदनस्यापि क्वचित्कदाचित्कस्यचिद्बाधकस्यानुत्पत्तेः सत्यसंवेदने तूत्पत्त: प्रतीयमानत्वात् । द्वितीयपक्षे तु-सकलदेशकालपुरुषाणां बाधकानुत्पत्त्युत्पत्त्योः कथमसर्वविदा वेदनं तत्प्रतिपत्त : सर्ववेदित्वप्रसङ्गात् ?
इत्यप्यनल्पतमोविलसितम् ; रजतप्रत्ययस्य शुक्तिकाप्रत्ययेनोत्तरकालभाविनकविषयतया बाध्यत्वोपलम्भात् । ज्ञानमेव हि विपरीतार्थख्यापकं बाधकमभिधीयते, प्रतिपादितासदर्थख्यापनं तु बाध्यम् । ननु चैतद्गतसर्पस्य घृष्टिं प्रति यष्टयभिहननमिवाभासते, यतो रजतज्ञानं चेदुत्पत्तिमात्रेण चरितार्थं किं तस्याऽतीतस्य मिथ्यात्वापादनलक्षणयापि बाधया ? तदसत्; एतदेव हि मिथ्याज्ञान
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कदाचित् किसी जगह बाधा नहीं भी आती है और अन्य व्यक्ति को वास्तविक जल में ही जल की प्रतीति आई तो भी उसमें शका-विवाद पैदा हो जाता है, सभी व्यक्तियों को सर्वत्र बाधा नहीं हो तब ज्ञान में सत्यता होती है ऐसा माने तो संपूर्ण देश कालों में और सभी पुरुषों को अमुक ज्ञान में बाधा है और अमुक में नहीं है ऐसा ज्ञान छद्मस्थ-अल्पज्ञानियों को नहीं हो सकता है, वैसा बोध होवे तो वह सर्वज्ञ ही कहलावेगा।
जैन-इस प्रकार से तत्त्वों का उपप्लव करने वाला यह कथन अत्यंत अज्ञानमय है। देखो-सीधी सादी प्रतीतिसिद्ध बात है कि सीप में "यह चांदी है" इस प्रकार का ज्ञान उत्तर समयवर्ती एक विषय वाले ज्ञान के द्वारा बाधित होता है, कि यह चांदी नहीं है सीप है, ज्ञान में ही ऐसी सामर्थ्य है कि वह पूर्वज्ञान के विषय को विपरीत सिद्ध कर देता है और इसीलिये उसे बाधक कहते हैं । तथा असत्य वस्तुको ग्रहण करने वाला पूर्वज्ञान ही बाध्य है, यहां और तो कोई वस्तु है नहीं।
__शंका-यह बाध्य बाधक का कथन तो सर्प के चले जाने पर उसकी लकीर को लकड़ी से पीटने के जैसा मालूम पड़ता है, क्योंकि वह अतीत काल का रजत ज्ञान उत्पन्न होने मात्र का प्रयोजन रखकर समाप्त भी हो चुका है, अब उस अतीत को मिथ्यारूप बताने वाली बाधा क्या करेगी ?
समाधान-यह बात असत्य है, उस बीते हुए मिथ्याज्ञान में बाध्यता यही है कि इस ज्ञान में मिथ्यापन है यह बताना तथा उस ज्ञानके विषय में प्रवृत्ति नहीं होने देना वह बाधक ज्ञान का फल है। यदि उस पूर्ववर्ती रजतज्ञान को मिथ्या त
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