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________________ २०६ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे विषयम्, भिन्नविषयं वा ? तत्र समानविषयस्य संवादकत्वमेव न बाधकत्वम् । न खलु प्राक्तनं घटज्ञानमुत्तरेण तद्विषयज्ञानेन बाध्यते । भिन्नविषयस्य बाधकत्वे चातिप्रसङ्गः । श्रर्थोऽपि प्रतिभातः, प्रतिभातो वा बाधकः स्यात् । तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; प्रतिभातो ह्यर्थः स्वज्ञानस्य सत्यतामेवावस्थापयति, यथा पटः पटज्ञानस्य । द्वितीय विकल्पेऽपि श्रप्रतिभातो बाधकश्च' इत्यन्योन्यविरोधः । न हि स्वरविषारणमप्रतिभातं कस्यचिद्बाधकम् । किञ्च क्वचित्कदाचित्कस्यचिद् बाध्यबाधकभावाभावाभ्यां राजा का है, ज्ञानों का ऐसा कार्य नहीं है । प्रथमज्ञान का फल भी बाधित नहीं होगा, वह स्नान, पान, अवगाहन आदि रूप से प्रतिभासित हो चुका है, अच्छा यह भी सोचना होगा कि बाधक कौन है -ज्ञान है अथवा पदार्थ है ? यदि ज्ञान बाधा देने वाला है तो वह कौन सा ज्ञान है ? क्या वह पूर्वज्ञान के समान ही विषय वाला ज्ञान है, अथवा अन्य कोई विषय वाला ज्ञान है ? यदि वह पूर्वज्ञान के समान ही विषय वाला ज्ञान है तो वह अपने पूर्ववर्ती ज्ञान का समर्थक ही रहेगा बाधक नहीं, देखा जाता है कि पूर्वज्ञान घर को जानता है तो उत्तरवर्ती ज्ञान उसीको ग्रहण करने से बाधक नहीं होता है । द्वितीय पक्ष यदि स्वीकार करो कि उत्तर ज्ञान विभिन्न विषय वाला है तब तो वह प्रथम ज्ञान को बिलकुल बाधित नहीं कर सकेगा, वरना तो प्रतिप्रसंग उपस्थित होगा, फिर तो घट विषयक ज्ञान पट विषयक ज्ञान को भी बाधा देने लगेगा । यदि अर्थ बाधक है तो वह प्रतिभासित है या अप्रतिभासित है ? प्रथम विकल्प कहो तो वह ठीक नहीं, क्योंकि प्रतीत हुआ पदार्थ तो अपने ज्ञान की सत्यता को ही बतलावेगा, जैसे पट पटज्ञान की सत्यता को सिद्ध करता है । द्वितीय विकल्प मानो कि बाधा देनेवाला पदार्थ अप्रतिभासित है तो परस्पर विरुद्ध बात होगी, अप्रतिभासित है और फिर बाधक है, ऐसा संभव नहीं है। ज्ञान में नहीं झलका - प्रतिभासित नहीं हुआ खर विषाण किसी ज्ञान में बाधा देता हुआ नहीं देखा जाता है । तथा किसी विवक्षित ज्ञान में बाधक प्रमाण नहीं है अतः वह सत्य है और जिस ज्ञान में बाधा आती है वह असत्य है ऐसा विशिष्ट ज्ञान किसी एक व्यक्ति को किसी एक समय किसी स्थान पर होता है और उतने मात्र से ज्ञान में व्यवस्था हो जाती है, अथवा - ऐसा विशिष्ट ज्ञान सभी व्यक्तियों को सर्वत्र सर्वकाल में होवे तब सत्य असत्य ज्ञान सिद्ध होते हैं ? प्रथम विकल्प को मानेंगे तो सत्य और असत्य ज्ञानों में संकर हो जावेगा प्रर्थात् सत्य ज्ञान तो असत्य सिद्ध होगा और असत्य ज्ञान सत्य बन बैठेगा, देखिये - किसी को मरीचिका में जल मालूम हुआ उसमें सत्य और असत्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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