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________________ २०२ प्रमेयकमलमार्तण्डे 'इदमित्थम्' इति परस्मै निर्देष्टुमशक्यत्वेपि वस्तुरूपत्वप्रसिद्ध: । किञ्च, अयं भिन्नाभिन्नादिविचारः प्रमाणम्, अप्रमाणं वा ? यदि प्रमाणम् ; तेनाविषयीकृतायाः कथम विद्यायाः सत्त्वम् ? तदसत्त्वे च कथं मुमुक्षोस्तदुच्छित्तये प्रयासः फलवान् ? अथाप्रमाणम् ; कथं तहि तस्य वस्तुविषयत्वम् ? यतो 'भिन्नाभिन्नादिविचारस्य वस्तुविषयत्वात्' इत्यभिधानं शोभेत । यच्चोक्तम्-'यथा रजोरजोन्तराणि' इत्यादि; तदप्यसमीचीनम् ; यतो बाध्यबाधकभावाभावे कथं श्रवणमननादिलक्षणाऽविद्याऽविद्यां प्रशमयेत् ? बाध्यबाधकभावश्च सतोरेव अहिनकुलवत्, न त्वसतो! शशाश्वविषारणवत् । दैवरक्ता हि किंशुकाः केन रज्यन्ते नाम । विद्यमानमेव हि रजो रजोन्तरस्य स्वकार्यं कुर्वतः सामर्थ्यापनयनद्वारेण बाधकं प्रसिद्धम्, विषद्रव्यं वा उपयुक्तविषद्रव्यसामर्थ्या और वह असत है तो उसका नाश करने के लिये मुमुक्षु जीवों का प्रयत्न सफल कैसे होगा ? यदि भिन्न प्रादि का विचार अप्रमाण है ऐसा कहो तो स्वतः अप्रमाणभूत विचार वस्तुको विषय करने वाला कैसे हो सकता है, जिससे आपका वह कथन शोभित हो कि भिन्नाभिन्न विचार तो वस्तु विषयक होता है; अविद्या वास्तविक है नहीं, इत्यादि । __ आपने अविद्या से अविद्या का नाश होता है इस बात को समझाने के लिये धूलि आदि का दृष्टान्त दिया है सो असत् है, क्योंकि बाध्य बाधकभाव हुए बिना श्रवणमननादिरूप अविद्या अनादि अविद्या का नाश कैसे करेगी ? अर्थात् श्रवणमननादिरूप अविद्या और अनादि अविद्या इनका आपस में सर्प नौले की तरह बैर है कि जिससे यह उसे खतम करती है, तथा ऐसा बैररूप बाध्य बाधकभाव भी मौजूद वस्तु में ही होता है असत् में नहीं । क्या खरगोश के सींग और घोड़े के सींग में बाध्य बाधकभाव होता है । दैव से रंगे किंशुकों को कौन रंगाता है अर्थात् कोई नहीं रंगाता है, वैसे ही असत्रूप दोनों अविद्या-एक अनादि की अविद्या और दूसरी तत्त्वश्रवणादिरूप अविद्या के बीच में बाध्य बाधकभाव कौन उपस्थित कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है। विद्यमान रज ही कलुषता कार्य को करती हुई भिन्न रज के सामर्थ्य को दूर करके बाधकरूप से प्रसिद्ध होती है, एक विष भी दूसरे विष के सामर्थ्य को खतम करने में उपयोगी है, अन्न आदि के सदृश कार्य करने में उपयोगी नहीं है। किञ्च-भेद का नाश नहीं हो सकता है, क्योंकि अभेद की तरह वह भी वस्तु स्वभाववाला है, अतः उसका नाश करना असम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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