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________________ ब्रह्माद्वैतवादः २०१ संवादविसंवादकृतत्वात्तस्य सत्येतरत्वव्यवस्थायाः । संवादश्च भेदाभेदज्ञानयोर्वस्तुभूतार्थग्राहकत्वात्तुल्य इत्युक्तम् । __ यदप्युक्तम्-'भिन्नाभिन्नादिविचारस्य च वस्तुविषयत्वात्' इत्यादि; तत्राविद्याया। किमवस्तुस्वाद्विचारागोचरत्वम्, विचारागोचरत्वाद्वाऽवस्तुत्वं स्यात् ? न तावद्यद्यदवस्तु तत्तद्विचारयितुमशक्यम् ; इतरेतराभावादेरवस्तुत्वेऽपि 'इदमित्थम्' इत्यादिशाब्दप्रतिभासलक्षणविचारविषयत्वात् । नापि विचारागोचरत्वेनावस्तुत्वम् ; इक्षुक्षीरादिमाधुर्यतारतम्यस्य तज्जनितसुखादितारतम्यस्य वा हमारे समान प्रागभाव को भावान्तर स्वभावरूप मानना पड़ेगा। तथा ज्ञान में भेदग्रहण और अभेदग्रहण के द्वारा विद्या और अविद्या की व्यवस्था नहीं होती अर्थात् जो ज्ञानभेद को ग्रहण करे वह अविद्यारूप है और जो ज्ञान प्रभेद का ग्राहक है वह विद्यास्वरूप है ऐसा नियम नहीं है; किन्तु संवाद और विसंवाद के द्वारा ही ज्ञान में सत्यता और असत्यता की व्यवस्था बनती है, मतलब-जिस ज्ञान का समर्थक अन्य ज्ञान है वह सत्य है और जिसमें विसंवाद है वह असत्य है, यह संवादकपना भेदज्ञान और अभेदज्ञान दोनों में भी संभव है, क्योंकि दोनों ज्ञान वास्तविक वस्तु के ग्राहक हैं । जो कहा है कि भिन्न और अभिन्नादि विचार वस्तु में होते हैं, अविद्या अवस्तु है, अतः उसमें भिन्नादि की शंका नहीं करना इत्यादि-सो उस विषय में-हम प्रश्न करते हैं कि अविद्या अवस्तु होने से विचार के अगोचर है या विचार के अगोचर होने से अविद्या अवस्तु है ? अविद्या विचार के अगोचर है क्योंकि वह अवस्तु है ऐसा तो कह नहीं सकते क्योंकि जो जो अवस्तुरूप है वह वह विचार के अगोचर है ऐसा नियम नहीं है, देखिये-इतरेतराभाव आदि अवस्तुरूप हैं तो भी “यह इस प्रकार है" इत्यादिरूप से वे शाब्दिक प्रतिभास रूप विचार के गोचर होते ही हैं, मतलब - इतरेतराभाव का लक्षण तो होता ही है, जैसे-एक में दूसरी वस्तु का प्रभाव वह इतरेतराभाव है इत्यादिरूप से अभाव का विचार किया ही जाता है । विचार के अगोचर होने से अविद्या अवस्तु है ऐसे दूसरे पक्षवाली बात भी नहीं बनती देखो-गन्ना दूध प्रादि की मिठास की तरतमता अथवा उनके चखने से उत्पन्न हुए सुख की तरतमता 'यह इतनी ऐसी है' इस प्रकारसे दूसरे व्यक्ति को नहीं बताई जा सकती है, तब भी वे हैं तो वस्तुरूप ही, वैसे ही वह अविद्या विचार के अगोचर होने' मात्र से अवस्तुरूप नहीं हो सकती है । तथा-यह जो भिन्नाभिन्न का विचार किया जाता है वह प्रमाण है कि अप्रमाण है ? यदि प्रमाण है तो उस प्रमाणभूत विचार की जो विषय नहीं है ऐसी अविद्या का सत्व कैसे हो सकता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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