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ब्रह्मावतवादः
२०३ पनयने चरितार्थत्वादन्नमलादिसदृशतया न कार्यान्तरकरणे तत्प्रभवतीति । न च भेदस्योच्छेदो घटते; वस्तुस्वभावतयाऽभेदवत्तस्योच्छेत्तुमशक्तः।
भावार्थ- ब्रह्माद्व तवादी ने सारा विश्व एक ब्रह्मस्वरूप है इस प्रकार के अद्वत को सिद्ध करते समय सबसे पहिले प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित किया था-कि प्रत्येक व्यक्ति को आंख खोलते ही एक अखण्ड अभेदरूप जो कुछ प्रतीत होता है वह ब्रह्म का स्वरूप है, सभी पदार्थ प्रतिभासित होते हैं और प्रतिभास ही ब्रह्म का लक्षण है, अतः अनुमान से भी ब्रह्मतत्त्व सिद्ध होता है। आगम में तो प्रसिद्ध है ही कि -
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन ।
पारामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ।। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और पागम से ब्रह्माद्वैत को सिद्ध कर तर्कयुक्तियों के द्वारा भी सिद्ध करना चाहा है, इसमें उन्होंने पदार्थों में दिखाई देने वाले प्रत्यक्ष भेदों का प्रत्यक्ष प्रमाण से पदार्थों में दिखाई देने वाले भेदों का-असत्य अर्थात् प्रतीति से विरुद्ध तरीके से प्रभाव किया है। ब्रह्मा जगत् रचना को किस कारण से करता है, इस बात को समझाने के लिये-समर्थन करने के लिये-मकड़ी आदि का उदाहरण दिया है, विद्या और अविद्या की भी चर्चा की है जो कि मनोरंजक है, अन्त में अविद्या से ही अविद्या का नाश कैसे होता है इसके लिये रज और विष का उदाहरण देकर ब्रह्माद्वैत सिद्ध किया है, इन सभी प्रमाण और युक्तियों का जैनाचार्य ने अपनी स्याद्वादवाणी से यथास्थान सुयुक्तिक खण्डन किया है । प्रत्यक्षप्रमाण साक्षात् ही यह घट है यह पट है इत्यादि भेदरूप कथन करता है, न कि अभेदरूप । अनुमान से अभेद सिद्ध करना तो दूर रहा किन्तु उसी अनुमान से ही साध्य और हेतुरूप द्वत-भेद दिखायी देता है, आगम में जहां कहीं ब्रह्म के एकत्व का वर्णन है वह मात्र अतिशयोक्ति रूप है, वास्तविक नहीं है, ब्रह्म को तर्क से सिद्ध करना तो नितरां असंभव बताया है। जब पदार्थों में भेद स्वतः ही है अर्थात् प्रत्येक वस्तु स्वतः अन्य वस्तु से अपना पृथक् अस्तित्व रखती है तब उनको हम अभेद रूप कैसे कह सकते हैं-सिद्ध कर सकते हैं । मकड़ी आदि प्राणी स्वभाव से जाल नहीं बनाते हैं, किन्तु आहारसंज्ञा के कारण ही उनकी ऐसी प्रवृत्ति होती है, अत: इस उदाहरण से
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