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ब्रह्माद्वैतवादः
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यच्चानुमानादप्यात्माद्वैतसिद्धिरित्युक्तम् ; तत्र स्वतः प्रतिभासमानत्वं हेतुः, परतो वा । स्वत ेत्; असिद्धिः । परतश्च ेत्; विरुद्धोऽद्वै ते साध्ये द्व ेतप्रसाधनात् । 'घटः प्रतिभासते' इत्यादिप्रतिभाससामानाधिकरण्यं तु विषये विषयिधर्मस्योपचारात् न पुनः प्रतिभासात्मकत्वात् । प्रतिभासनं हि विषयिणो ज्ञानस्य धर्मः स विषये घटादावध्यारोप्यते । तदध्यारोपनिमित्तं च प्रतिभासन क्रियाधिकरणत्वम् । तथा च ‘अर्थमहं वेद्मि' इत्यन्तः प्रकाशमानानन्तपर्यायाऽचेतनद्रव्य व बहिःप्रकाशमानानन्तपर्यायावेतनद्रव्यमपि प्रतिपत्तव्यम् । 'सर्वं वं खल्विदं ब्रह्म' इत्याद्यागमोपि नाद्वतप्रसाधक: ; प्रभेदे प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावस्यैवासम्भवात् । न चागमप्रामाण्यवादिना श्रर्थवादस्य प्रामाण्यमभिप्रेतमति
का उपचार मुख्य सिंह के बिना नहीं होता है, मतलब - सिंह न हो तो उसका उपचार बालक में नहीं होता है; उसी प्रकार मुख्यभेद न हो तो उपचार भेद भी नहीं रहता है । अभेदवादीके यहां मुख्यभेद तो है ही नहीं यदि वह माना जावे तो अद्वैत सिद्धान्त गलत होगा ।
आपने जो अनुमान से श्रद्वतवाद की सिद्धि कही थी कि - " यत् प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तः प्रविष्टं प्रतिभासमानत्वात् यथा प्रतिभासस्वरूपं प्रतिभासते च चेतना - चेतनारूपं वस्तु तस्मात्प्रतिभासान्तः प्रविष्टमिति" जो प्रतिभासित होता है, वह प्रतिभास के अन्दर शामिल है, क्योंकि वह प्रतिभासित हो रहा है जैसा कि प्रतिभास का स्वरूप अशेष चेतन, अचेतन पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, अतः वे प्रतिभास के अन्दर शामिल हैं । सो भी प्रयुक्त है, इस अनुमान में जो प्रतिभासमानत्व हेतु है वह स्वतः प्रतिभासमानत्व है कि परतः प्रतिभासमानत्व है ? स्वतः कहो तो वह हेतु प्रतिवादी की अपेक्षा प्रसिद्ध होगा, क्योंकि वे पदार्थों को स्वतः प्रतिभासमान नहीं मानते हैं, परसे कहो तो विरुद्ध होगा, क्योंकि अद्वैत में साध्य और हेतु ऐसा द्वंत होने से वह द्वैत को ही सिद्ध कर देगा, यदि कोई कहे कि घट प्रतिभासित होता है। इत्यादिप्रतिभास का समानाधिकरण्य जो वस्तु के साथ देखा जाता है वह कैसे देखा जाता है ? तो बताते हैं कि विषय में विषयी जो ज्ञान है उसके धर्मका उपचार करके ऐसा कहा जाता है; न कि वहां स्वतः प्रतिभासमानता है इसलिये कहा जाता है, क्योंकि प्रतिभासनज्ञान का धर्म है उसे घटादि विषयमें आरोपित करते हैं, वह आरोप भी इसलिये है कि प्रतिभासन क्रिया के घटादि पदार्थ अधिकरण हैं, तथाजिस प्रकार " मैं पदार्थको जानता हूं" इस प्रकार के ज्ञान में जो "मैं" ग्रहं है वह अंतः प्रकाशमान अनन्तपर्याययुक्त चेतन द्रव्य है, उसी प्रकार बहिः प्रकाशमान अनन्त
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