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________________ १६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे भवत्येवेत्यप्ययुक्तमुक्तम् ; 'एकं ब्रह्मणो रूपम्' इत्यादिशब्दस्य भेदप्रत्ययजनकत्वे सति आगमात्तस्यैकत्वप्रतिपत्तेरभावानुषङ्गात् । भेदप्रतिभासाच्छब्दे (ब्दोऽ)स्तीत्यभ्युपगते च-अन्योन्याश्रयत्वम् --शब्दा भेदप्रतिभासः, भेदप्रतिभासाच्छब्द इति । 'घटोयं पटोयम्' इत्यादिभेदप्रतिभासस्य जात्याद्य ल्लेखित्वात्कल्पनात्वे-प्रभेदज्ञानस्यापि कल्पनात्वानुषङ्गः; तस्यापि सत्तादिसामान्योल्लेखित्वात् । असदर्थविषयत्वं च भेदप्रतिभासस्यासिद्धम् ; अर्थ क्रियाकारिणो वस्तुभूतार्थस्य तत्र प्रतिभासनात् । विसंवादित्वं बाध्यमानत्वं च कल्पनालक्षणमैतेन प्रत्युक्तम् ; तस्यासदर्थविषयत्वादर्थान्तरत्वाऽसम्भवात् । अन्यापेक्षतयार्थस्वरूपावधारणं चानन्तरमेव प्रत्याख्यातम् ; यतो व्यवहार एवान्यापेक्षतया प्रवर्तते न स्वरूपावधारणम् । नापि भेदप्रतिभासस्योपचाररूपं कल्पनात्वम् ; मुख्यासम्भवे तस्याप्यदर्शनान्माणवके सिंहाद्य पचारवत् । न चाभेदवादिनो मुख्यं भेदाभ्युपगमोस्त्यपसिद्धान्तप्रसङ्गात् । से अवधारण करो तो भी अयुक्त है, क्योंकि-एक ब्रह्मणो रूपं" इत्यादि ब्रह्माद्वत प्रतिपादक जो आपके यहां शब्द हैं वे भी भेद का प्रतिभास उत्पन्न कराते हैं ऐसा सिद्ध होगा, कारण कि शब्द से भेद होता ही है, ऐसा अवधारण प्रापने मान लिया है, अतः आगमप्रमाण से जो ब्रह्मा के एकत्व का निश्चय होता था वह सिद्ध नहीं हो सकेगा। भेदप्रतिभास से शब्द होता है, ऐसा मानने पर तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, शब्द से भेदप्रतिभास की सिद्धि होगी और भेदप्रतिभाससे शब्द की सिद्धि होगी; इसप्रकार दोनों ही सिद्ध न हो सकेंगे। यह घट है. यह पट है इत्यादि भेदों को करने वाले ज्ञानको जात्याद्युल्लेखरूप कल्पना माना जाये तो अभेदज्ञान भी काल्पनिक होगा, क्योंकि वह भी सत्तासामान्यरूप जातिका उल्लेखी है। जो असत् अर्थको विषय करती है वह कल्पना है, ऐसा माना जाये सो भी ठीक नहीं, क्योंकि भेद प्रतिभास असत् वस्तु में होता ही नहीं है, अर्थक्रिया को करनेवाला जो सत्य पदार्थ है, वही भेदज्ञान में झलकता है, इसीप्रकार विसंवादित्व और बाध्यमानत्व कल्पना का लक्षण किया जाय तो उसके-सम्बन्धमें-प्रश्न उत्तर ऊपरके कथन में ही हो गये हैं, क्योंकि असदर्थ से विसंवादित्व और बाध्यमानत्व भिन्न नहीं हैं एक ही हैं, "अन्य की अपेक्षा से अर्थस्वरूप का अवधारण करना कल्पना है" इस पक्षका भी खण्डन अभी ही किया जा चुका है, क्योंकि व्यवहार ही अन्य की अपेक्षा रखता है न कि स्वरूपावधारण, वह स्वरूप तो स्वतः ही प्रतिभासित होता है । उपचारमात्र को यदि कल्पना कहा जावे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि भेद का प्रतिभास उपचारमात्र नहीं है, देखो-मुख्य भेदके बिना उपचार भेद भी नहीं बनता है, जैसे कि बालक में सिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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