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ब्रह्माद्वैतवादः ऽसम्भवात् ? न तावदाद्यविकल्पः; अभेदज्ञानस्यापि स्मरणानन्तरमुपलम्भेन कल्पनात्वप्रसङ्गात् । शब्दाकारानुविद्धत्वं च ज्ञाने प्रागेव प्रतिविहितम् । ननु सकलो भेदप्रतिभासोऽभिलापपूर्वकस्तदभावे भेदप्रतिभासस्याप्य भावः स्यात् ; तन्न; विकल्पाभिलापयोः कार्यकारणभावस्य कृतोत्तरत्वात् । अस्तु वासौ, तथापि कि शब्दजनितो भेदप्रतिभासः, तज्जनितो वा शब्द ? प्रथमपक्षे कि शब्दादेव भेदप्रतिभासः, ततोऽसौ भवत्येवेति वा ? शब्दादेव भेदप्रतिभासाभ्युपगमे-प्रथमाक्षसन्निपातानन्तरं चित्रपट्यादिज्ञानस्य भेदविषयस्यानुत्पत्तिप्रसङ्गः; निर्विकल्पकानुभवानन्तरंसंकेतस्मरण विवक्षाप्रयत्नताल्वादिपरिस्पन्द क्रमेणोपजायमानशब्दस्याविकल्पकप्रथमप्रत्ययावस्थायामभावात् । शब्दादनेकत्वप्रतिभासो
जानना ? अथवा अन्य की अपेक्षा से अर्थ के स्वरूप का अवधारण करना ? या कि उपचारमात्र होना ? इतने कल्पना शब्द के अर्थ हो सकते हैं, इनसे अतिरिक्त और कोई कल्पना का अर्थ संभावित नहीं है, ज्ञानका स्मरण के बाद होनाकल्पना कहलाती है तो यह प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार मानने से अभेदज्ञान भी स्मरण के बाद होता है, अत: उसमें काल्पनिकत्व आयेगा, दूसरा पक्ष जो ज्ञान में शब्दाकारानुविद्धत्व है उसका खंडन तो पहिले ही हम कर चुके हैं।
___ यदि कोई बीच में ऐसा कहे कि “सारा भेदप्रतिभास तो शब्द पूर्वक होता है फिर उसके अभाव में वह भेदप्रतिभास भी अभावरूप होगा" सो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्प अर्थात् भेद प्रतिभास और शब्द में कार्यकारणभाव का खंडन पहिले कर आये हैं । अच्छा-मान भी लेवें कि शब्द और भेदप्रतिभास में कार्यकारणभाव है तो भी यह बतायो कि शब्द से भेदप्रतिभास उत्पन्न हुआ है ? या भेदप्रतिभास से शब्द उत्पन्न हुआ है ? प्रथम पक्ष में २ प्रश्न हैं-भेदप्रतिभास अकेले शब्द से ही होता है या उससे भेद प्रतिभास होता ही है, ( अर्थात् शब्द से ही भेद प्रतिभास होता है यह प्रश्न अन्ययोगव्यवच्छेदकरूप है, तथा उससे भेद प्रतिभास होता ही है यह प्रश्न क्रियासंगत एवकारवाला होने से वह और किसी से भी हो सकता है ऐसा भाव व्यक्त करता है ), मात्र शब्द से ही भेद होता है ऐसा माना जावे तो शब्द के अभाव में भी प्रांख खोलते ही जो चित्रपट आदि अनेक स्थानों पर भेदों का ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिये था ? क्योंकि निर्विकल्प अनुभव के अनन्तर अनेक प्रवृत्तियां हुआ करती हैं-जैसे देखो-संकेत का स्मरण, विवक्षा, प्रयत्न, तालु आदिका परिस्पन्द फिर इनके बाद क्रम से उत्पन्न होने वाला शब्द होता है सो वह शब्द विचारा उस प्रथम निर्विकल्प अवस्था में होता नहीं । शब्द से अनेकत्व का प्रतिभास होता ही है ऐसा दूसरी तरह
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