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________________ १६२ प्रमेयकमलमार्तण्डे णावकाशं लभते । प्रयोगः विवादाध्यासितमेकत्वं परमार्थसन्नानात्वाविनाभावि एकान्तैकत्वरूपतयाऽनुपलभ्यमानत्वात्, घटादिभेदाविनाभूतमृद्रव्यैकत्ववत् । एतेन व्यक्तिमात्रगतमप्येकत्वं प्रत्युक्तम्, एकानेकव्यक्तिव्यतिरेकेण व्यक्तिमात्रस्यानुपपत्तेः । यञ्चोक्तम्-' भेदस्यान्यापेक्षतया कल्पनाविषयत्वम्" तदप्युक्तिमात्रम् ; एकत्वस्यैवान्यापेक्षतया कल्पनाविषयत्वसम्भवात् । तद्धयने कव्यक्त्याश्रितम्, भेदस्तु प्रतिनियतव्यक्तिस्वरूपोऽध्यक्षावसेयः । अथैकत्वं प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नम्, अन्यापेक्षया तु कल्पनाज्ञानेनानुयायि रूपतया व्यवह्रियते, तहि भेदोऽप्यध्यक्षेण प्रतिपन्नोऽन्यापेक्षया विकल्पज्ञानेन व्यावृत्तिरूपतया व्यवह्रियते इत्यप्यस्तु । का चेयं कल्पना नाम-ज्ञानस्य स्मरणानन्तरभावित्वम्, शब्दाकारानुविद्धत्वं वा स्यात् , जात्यायुल्लेखो वा, असदर्थविषयत्वं वा, अन्यापेक्षतयाऽर्थस्वरूपावधारणं वा, उपचारमात्र या प्रकारान्तरा बाधा आयेगी ? कुछ भी नहीं, इसलिये यह सिद्ध हया कि अनेकत्व के बिना एकत्व नहीं बनता, इसी बातको अनुमान से सिद्ध करके बताते हैं- "विवाद में आया हुआ अद्वैती का एकत्व भी वास्तविक अनेकत्व का अविनाभावी है क्योंकि सर्वथा एकान्तपने से एकत्व की उपलब्धि ही नहीं होती है, जैसे कि घटादि भेदों में अविनाभावी सम्बन्ध से मिट्टी एकत्वरूप से रहती है, इसीप्रकार सामान्य व्यक्तिमात्रगत होता है इसका खण्डन समझ लेना चाहिये, क्योंकि एक और अनेक को छोड़कर और भिन्न कोई व्यक्तिमात्र होता नहीं है। जो ब्रह्मवादी ने कहा था कि भेद अन्य की अपेक्षा रखता है, इसलिये वह काल्पनिक है सो यह गलत है, उल्टा एकत्व ही भेदरूप अनेकों की अपेक्षा रखता है, अत: वही काल्पनिक है । क्योंकि एकत्व अनेक व्यक्तियों के आश्रित रहता है और भेद तो प्रतिनियत व्यक्तिरूप होता है, जो कि प्रत्यक्ष से जाना जाता है। कहो कि एकत्व प्रत्यक्ष से प्रतीत है उसमें अन्य अपेक्षा जो दिखती है वह काल्पनिक ज्ञान के द्वारा अनुयायीपने से व्यवहार में लाई गई है । तो फिर भेद भी प्रत्यक्ष से जाना हा है, किन्तु अन्य की अपेक्षा लेकर विकल्पज्ञान के द्वारा वह व्यावृत्तिरूप से व्यवहार में लाया जाता है ऐसा मानो। ब्रह्मवादी यह बतादें कि कल्पना कहते किसे हैं ? स्मरण के बाद ज्ञान का होना ? शब्दाकारानुविद्धत्व होना ? जात्याद्युल्लेख का होना ? असत् अर्थ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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