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________________ १९६ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे प्रसङ्गात् । श्रात्मैव हि सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुरित्यप्यसम्भाव्यम् ; अद्वैतैकान्ते कार्यकारणभावविरोधात्, तस्य द्वताविनाभावित्वात् । निराकृतं च नित्यस्य कार्यकारित्वं शब्दाद्व तविचारप्रक्रमे । किमर्थं चासौ जगद्वं चित्र्यं विदधाति ? न तावद्व्यसनितया; अप्रेक्षाकारित्वप्रसङ्गात्, प्रेक्षाकारप्रवृत्तेः प्रयोजनवत्तया व्याप्तत्वात् । कृपया परोपकारार्थं तत् करोतीति चेत्; न; तद्व्यतिरेकेण परस्याऽसत्त्वात् । सत्त्वे वा नारकादिदुःखितप्राणिविधानं न स्यात्, एकान्तसुखितमेवाखिलं जगज्जनयेत् । किञ्च सृष्ट ेः प्रागनुकम्प्यप्राण्यभावात् किमालम्ब्य तस्यानुकम्पा प्रवर्त्तते येनानुकम्पावशादयं स्रष्टा कल्प्येत ? अनुकम्पावशाच्चास्य प्रवृत्तौ देवमनुष्याणां सदाभ्युदययोगिनां प्रलयविधान विरोधः, दुःखितप्राणिनामेव प्रलयविधानानुषङ्गात् । प्राण्यदृष्टापेक्षोऽसौ सुखदुःखसमन्वितं जगत् जनयतीत्य पर्याययुक्त अचेतन द्रव्य को भी मानना चाहिये । "सर्वं खल्विद" इत्यादिरूप आपका आगम भी अद्व ेत सिद्ध नहीं करता है, देखो - प्रभेदपक्ष में तो प्रतिपाद्य ( शिष्य ) प्रतिपादक ( गुरु ) यह भेद ही असम्भव है । श्रागम प्रमाणवादी को आगमके स्तुतिरूप या प्रशंसारूप वचनों को सत्य नहीं मानना चाहिये, अन्यथा अतिप्रसंग आवेगा, ( पत्थर पानी में तैरता है, अन्धा मणि को पिरोता है इत्यादि अतिशयोक्तिपूर्ण वचनों को सत्य मानने का प्रतिप्रसंग श्राता है । ब्रह्मा ही सभी लोगों की - ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कारण है यह मानना भी गलत है, क्योंकि प्रद्वैत में कार्यकारणभाव का विरोध है, वह कार्यकारणभाव तो द्वैत का अविनाभावी है; अर्थात् एक कारण और एक कार्य इस प्रकार दो पदार्थ तो हो ही जाते हैं, तथा नित्य स्वभावी ब्रह्मा कार्य को कर नहीं सकता यह बात शब्दाद्वैत के प्रकरण में बता चुके हैं । अच्छा - यह बताओ कि यह ब्रह्मा जगत् को विचित्र - नानारूप क्यों रचता है ? आदत के कारण वह ऐसा होकर रचता है तो वह अप्रेक्षावान होगा, क्योंकि बुद्धिमान तो प्रयोजनवश ही कार्य में प्रवृत्ति करते हैं न कि श्रादत से लाचार होकर करते | कृपा के वश हो परोपकार करने के लिये ब्रह्मा जगत् को रचता है यदि ऐसा कहो तो भी ठीक नहीं, क्योंकि ब्रह्मा को छोड़कर और कोई दूसरा है ही नहीं, फिर वह किसका उपकार करे ? अच्छा तो ब्रह्मा जगत रचना करता है तो फिर उसे नारक आदि दुःखी प्राणियों को नहीं बनाना चाहिये था सभी सुखी ही जीव बनाना चाहिये था, दूसरी बात यह है कि सृष्टि के पहिले अनुकम्प्य अनुकम्पा योग्य प्राणी ही नहीं था तो किसकी अपेक्षा लेकर उस ब्रह्मा को अनुकम्पा उत्पन्न हुई ? जिससे कि ब्रह्मा दया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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