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________________ ब्रह्माद्वैतवादः १८६ अवच्छेदक्यविद्याव्यावृत्तौ हि परमात्मैकस्वरूपतावस्थितेः घटाद्यवन्छेकभेदव्यावृत्तौ व्योम्नः शुद्धाकाशतावत् । न चाद्व ते सुखदु खबन्धमोक्षादिभेदव्यवस्थानुपपन्ना; समारोपितादपि भेदात्तभेदव्यवस्थो. पपतेः; यथा वतिनां 'शिरसि मे वेदना पादे मे वेदना' इत्यात्मन समारोपितभेदनिमित्ता दुःखादिभेदव्यवस्था । पादादीनामेव तद्वेदनाधिकरणत्वात्तेषां च भेदात्तद् व्यवस्था युक्त त्यप्ययुक्तम् ; यतस्तेषामज्ञत्वेन भोक्तृत्वायोगात् । भोक्तृत्वे वा चार्वाकमतानुषङ्गः । तदेवमेकत्वस्य प्रत्यक्षानुमानागमप्रमितरूपत्वात्सिद्ध ब्रह्माऽद्वतं तत्त्वमिति । अत्र प्रतिविधीयते । किं भेदस्य प्रमाणबाधितत्वादभेदः साध्यते, अभेदे साधकप्रमाणसद्भावाद्वा ? तत्राद्यविकल्पोऽयुक्तः; प्रत्यक्षादेर्भेदानुकूलतया तबाधकत्वायोगात् । न खलु भेदमन्तरेण है-खतम हो जाता है, बिलकुल यही प्रक्रिया अविद्या के बारे में है, अर्थात् श्रवण, श्रद्धान ध्यानादिरूप अविद्या के द्वारा भेद का हठाग्रह नष्ट होकर अपने में होनेवाले भेद भी नष्ट हो जाते हैं । एवं संसारी जीव एकत्व में (ब्रह्मा में ) स्थिर हो जाते हैं, भेद को करने वाली अविद्या व्यावृत्त होते ही परमात्मरूप एकत्व में जीव की स्थिति हो जाती है, जैसे कि घट आदि के भेदों की व्यावृत्ति होते ही प्राकाश शुद्धता को प्राप्त हो जाता है । हमारे अद्वैत में सुख दुख बन्ध मोक्षादि की भेदव्यवस्था नहीं ... है, ऐसा भी नहीं कहना, हमारे यहां तो काल्पनिक भेदों से भेदव्यवस्था बन जाती है। जैसे आप द्वतवादो के यहां अपनी एक ही आत्मा में काल्पनिक भेद करके कहा जाता है, कि मेरे मस्तक में दर्द है, मेरे पैर में पोड़ा है, इत्यादि दुःख के भेद की व्यवस्था होती है या नहीं ? अर्थात् होती ही है, कहो कि उन पैर आदि वेदना के आधारभूत अवयवों में भेद है अत: दुःखों में भेद पड़ जाता है, सो यह ठीक नहीं, क्योंकि वे पर आदि तो जड़ हैं वे क्या भोक्ता बनेंगे। यदि पैर आदि शरीरावयव भोक्ता होंगे तो चार्वाक मत आवेगा । इस प्रकार एकत्व अद्वैत ही प्रत्यक्ष प्रमाण अनुमान तथा आगम प्रमाणों के द्वारा सिद्ध होता है, अतः ब्रह्माद्वैत मात्र तत्त्व है ऐसा मानना चाहिये। जैन-अब यहां पर ऊपर लिखे ब्रह्मावत का निरसन किया जाता है-आप अद्वैतवादी भेद का खण्डन करते हो सो क्यों ? क्या भेद प्रमाण से बाधित है अथवा अभेद को सिद्ध करनेवाला प्रमाण है, इसलिये? प्रथम पक्ष ठीक नहीं-क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण भेद के अनुकूल ही हैं, वे भेदों में बाधा नहीं दे सकते । तथा भेद के बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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