SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे तत्त्वतस्तस्याः सद्भावे हि न कश्चिन्निवर्त्तयितुं शक्नुयाद् ब्रह्मवत् । सर्वेरेव चातात्त्विकानाद्यविद्योच्छेदार्थो मुमुक्षूणां प्रयत्नोऽभ्युपगतः । न चानादित्वेनाविद्यच्छेदासम्भवः ; प्रागभावेनाऽनेकान्तात् । तत्त्वज्ञानप्रागभावरूपैव चाविद्या तत्त्वज्ञानलक्षणविद्योत्पत्तौ व्यावर्तत एव घटोत्पत्तौ तत्प्रागभाववत् । भिन्नाऽभिन्नादिविकल्पस्य च वस्तुविषयत्वात् श्रवस्तुभूताऽविद्यायामप्रवृत्तिरेव सैवेयमविद्या माया मिथ्याप्रतिभास इति । १८८ न चात्मश्रवणमननध्यानादीनां भेदरूपतयाऽविद्यास्वभावत्वात्कथं विद्याप्राप्तिहेतुत्वमित्यभिधातव्यम् ? यथैव हि रजः संपर्ककलुषोदके द्रव्यविशेषचूर्णं रजः प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि प्रशमयत्स्वयमपि प्रशम्यमानं स्वच्छां स्वरूपावस्थामुपनयति यथा वा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, एवमात्मश्रवणादिभिर्भेदाभिनिवेशोच्छेदात् स्वगतेऽपि भेदे समुच्छिन्न स्वरूपे संसारी समवतिष्ठते । विद्या ब्रह्म से वास्तविकरूप में पृथक् होती तो उसका हटाना सर्वथा अशक्य हो जाता, जैसा कि ब्रह्मा का हटाना सर्वथा अशक्य है, परन्तु देखने में आता है कि मोक्षार्थीजन तात्त्विक अविद्या को हटाने - विनष्ट करने के लिये ही प्रयत्न करते हैं ऐसी बात चाहे वादी हो चाहे प्रतिवादी हो सभी ने स्वीकार की है । यदि कोई ऐसी आशंका करे कि अविद्या तो अनादि की है अतः उसका विनाश नहीं हो सकेगासो ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार का यह कथन प्रागभाव के साथ अनैकान्तिक हो जाता है, प्रागभाव अनादि है फिर भी उसका विनाश होता है, विद्या, तत्त्वज्ञान का प्रागभाव है वह तत्त्वज्ञानरूप विद्या के उत्पन्न होते ही हट जाती है, जैसे-घट के उत्पन्न होने पर उसका प्रागभाव समाप्त हो जाता है, वह अविद्या भिन्न है या अभिन्न है ? ऐसे प्रश्न तो वस्तुस्वरूप में होते हैं, अवस्तुरूप विद्या में नहीं, इस प्रकार इस प्रविद्या को माया एवं मिथ्याप्रतिभास ऐसे नाम से भी प्रमोहित किया गया है । यहां ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि आत्मतत्त्व का श्रवण, श्रद्धान, ध्यान आदि ये सब भेदरूप होने से अविद्या स्वभाववाले हैं, अतः इनसे विद्या की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? क्योंकि देखिये - जिस प्रकार धूलि कीचड़ आदि से गंदले हुए पानी में फिटकरी चूर्ण आदिरूप एक तरह की धूलि डालने पर वह उसमें की अन्य मिट्टी आदि रूप एक तरह की धूलि कीचड़ आदि को शान्त करनेवाली होती है और स्वयं भी स्वच्छ अवस्था को प्राप्त हो जाती है, इस तरह जल बिलकुल स्वच्छ हो जाता है, अथवा विष विष को दबा देता है और उसके साथ आप भी स्वयं शमित हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy