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ब्रह्माद्वैतवादः अथाहंप्रत्यये बोधात्मा तद्ग्राहकोऽवसीयते; न; तत्रापि शुद्धबोधस्याप्रतिभासनात् । स खलु 'अहं सुखी दुःखी स्थूलः कृशो वा' इत्यादिरूपतया सुखादि शरीरं चावलम्बमानोऽनुभूयते न पुनस्तद व्यतिरिक्त बोधस्वरूपम् । स्वतश्चाकाराणां भेदसंवेदने स्वप्रकाशनियतत्वप्रसङ्गः, तथा चान्योऽन्यासंवेदनात्कुतः स्वतोऽप्याकारभेदसंवित्तिः ।
अर्यकरूपब्रह्मणो विद्यास्वभावत्वे तदर्थानां शास्त्राणां प्रवृत्तीनां च वैयर्थ्य निवर्त्यप्राप्तव्यस्व. भावाभावात् । विद्यास्वभावत्वे चासत्यत्वप्रसङ्गः; तथाच "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" [ तेत्त० २/१ ] इत्यस्य विरोधः; तदप्यसङ्गतम् ; विद्यास्वभावत्वेऽप्यस्य शास्त्रादीनां वैयसिंभवात् अविद्याव्यापारनिवर्त नफलत्वात्तेषाम् । यत एव चाविद्या ब्रह्मणोऽर्थान्तरभूता तत्त्वतो नास्त्यत एवासौ निवर्त्यते, अहं प्रत्यय में आकाररूप भेदग्राहक बोधात्मा प्रतोति में प्राता है सो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अहं प्रत्यय में भी शुद्ध बोध का प्रतिभास नहीं होता, क्योंकि वह अहं प्रत्यय भी "मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं स्थूल हूं, मैं कृश हूं, इत्यादिरूप से सुखादि का या शरीर का अवलम्बतवाला हुआ ही अनुभव में आता है, इससे अतिरिक्त अकेला बोधस्वरूप अनुभव में नहीं आता, यदि कहा जावे कि भले ही किसी भी प्रमाण से आकार-भेद अनुभवित नहीं होता हो तो मत होओ परन्तु वह आकार भेद स्वत: तो अनुभव में आता है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तो पदार्थ स्वत: प्रकाशमान-अपने आपको जाननेवाले हो जावेंगे, ऐसी दशा में अन्य का अन्य के द्वारा संवेदन न होने से ( ज्ञान के द्वारा वस्तु का संवेदन प्रतिभास न होने से ) आकारों का भेद ज्ञान में स्वतः प्रतीत होता है" यह बात सिद्ध नहीं होती है । यदि कोई ( जैन आदि ) इस प्रकार की शंका करे" कि ब्रह्मा तो एक स्वभाव वाला है-अर्थात् विद्या ( ज्ञान ) स्वभाव वाला है तो उसके लिये शास्त्रों एवं अनुष्ठान आदिकों का करना व्यर्थ है, क्योंकि त्यागने योग्य अविद्या रूप और प्राप्त करने योग्य विद्यारूप स्वभाव का उस ब्रह्म में प्रभाव है ।।
यदि ब्रह्मा को अविद्यास्वरूप माना जाय तो उस ब्रह्मामें असत्यरूपता हो जाने से "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म"-इस सूत्र की जो तैत्तरीयोपनिषद में कहा गया हैकि परमब्रह्म सत्यस्वरूप है अन्तरहित है एव ज्ञान ( विद्या ) स्वभाववाला है"संगति नहीं बैठती है अर्थात् यह कथन गलत हो जाता है," सो इस प्रकार की यह जैन आदिकों की आक्षेपरूप शंका असंगत है, क्योंकि हम ब्रह्माद्वैतवादी ने ब्रह्म को विद्यास्वभाववाला माना है, ऐसे स्वभाव वाला मानने पर शास्त्रादिक व्यर्थ नहीं होते हैं, क्योंकि अनुष्ठान आदिक अविद्या के व्यापार को हटाते हैं, यही उनका फल है।
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