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________________ १६० प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रमाणेतरव्यवस्थापि सम्भाव्यते । द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः; भेदमन्तरेण साध्यसाधकभावस्यैवासम्भवात् । न चाभेदसाधक किञ्चित्प्रमाणमस्ति । यच्चोक्तम्-"अविकल्पकाध्यक्षेणैकत्वमेवावसीयते" तत्र किमेकव्यक्तिगतम्, अनेकव्यक्तिगतम्, व्यक्तिमात्रगतं वा तत्त्वेन प्रतीयते ? एकव्यक्तिगतं चेत् ; तत्कि साधारणम्, असाधारणं वा ? म तावसाधारणम् ; 'एकव्यक्तिगतं साधारणं च' इति विप्रतिषेधात् । असाधारणं चेत् ; कथं नातो भेदसिद्धिः असाधारणस्वरूपलक्षणत्वाद्भदस्य । अथानेकव्यक्तिगतं सत्तासामान्यरूपमेकत्वं प्रत्यक्षग्राह्यमित्युच्यते; तत्कि व्यक्त्यधिकरणतया प्रतिभाति, अनधिकरणतया वा ? प्रथमपक्षे भेदप्रसङ्गः 'व्यक्तिरधिकरणं तदाधेयं च सत्तासामान्यम्' इति, अयमेव हि भेदः । द्वितीयपक्षे-व्यक्तिग्रहणमन्तरेणाप्यन्तराले तत्प्रति प्रमाण और अप्रमाण की व्यवस्था भी कहाँ रहेगी। दूसरा पक्ष अर्थात् अभेद को सिद्ध करनेवाला प्रमाण है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं क्योंकि भेद के बिना साध्य और साधन का भाव कैसे बन सकता है. अतः अभेद को सिद्ध करनेवाला कोई भी प्रमाण नहीं है । आप ( ब्रह्माद्वैतवादी ) ने जो कहा था कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष से एकत्व जाना जाता है सो एक ही व्यक्ति का एकत्व जाना जाता है कि अनेकव्यक्तियों का एकत्व जाना जाता है या कि व्यक्तिमात्र का एकत्व जाना जाता है, यदि एक व्यक्तिगत एकत्व निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा जाना जाता है ऐसा कहो तो वह साधारण है या असाधारण ? साधारण तो उसे कह नहीं सकते क्योंकि वह व्यक्तिगत हो और साधारण हो ऐसा कथन तो आपस में निषिद्ध है अर्थात् जो साधारण होता है वह अनेक व्यक्तिगत होता है एक व्यक्तिगत नहीं होता । असाधारण कहो तो उससे भेद सिद्ध क्यों नहीं होगा। क्योंकि असाधारणरूपवाला ही भेद होता है । यदि कहो कि अनेकव्यक्तिगत एकत्व सत्ता सामान्य को ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्ष से ग्राह्य होता है, तो प्रश्न होता है कि अनेक व्यक्तियां जिसके आधारभूत हैं उन आधारों के साथ सत्ता सामान्यरूप एकत्व का ग्रहण होता है ? कि आधार रहित सत्तासामान्य रूप एकत्व का ग्रहण होता है ? यदि कहा जावे कि अपने आधारभूत अनेक व्यक्तियों के साथ सत्तासामान्यरूप एकत्व का ग्रहण होता है तो इससे भेद मालूम पड़ता है-अर्थात् भेद का प्रसङ्ग प्राप्त होता है-देखिये-व्यक्ति सत्तासामान्यरूप एकत्व का अधिकरणरूप एक पदार्थ हुआ और आधेयरूप सत्तासामान्य एक पदार्थ हुआ, यही तो भेद है । दूसरे पक्ष में-अर्थात व्यक्तिभूत आधार के ग्रहण किये बिना सत्तासामान्यरूप एकत्व का ग्रहण होता है ऐसा मानो तो व्यक्ति ( विशेष ) जहां नहीं ऐसे स्थान पर भी सामान्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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