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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे गुण या धर्म होते हैं उनमें से किसी गुण या धर्म का किसी प्रमाण से निश्चय होने पर भी दूसरे गुण की अपेक्षा वह वस्तु दूसरे प्रमाण के लिये अपूर्वार्थ हो जाती है, जैसे पहिले धूम के द्वारा परोक्षरूप से अग्नि के विषय में दो प्रमाण प्रवृत्त हुए तो भी उनका विषय अपूर्वार्थ ही रहा, ऐसे ही वृक्षत्व सामान्यको जानकर पीछे उसका वटत्वादि विशेष धर्म जाना जाता है और वह वस्तु प्रपूर्वार्थ- अर्थात् जिसका ग्रहण अभी तक न हुआ हो ऐसी मानी जाती है, “अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वमेव प्रमाणम्” ऐसी प्रभाकर की मान्यता है, किन्तु यह गलत है, क्योंकि ऐसा एकान्त ग्रहण करने पर प्रमाण में प्रमाणता जो संवाद से आती है वह नहीं रहेगी, क्योंकि प्रमाण के द्वारा ज्ञात हुए विषय में ही संवादप्रत्यय प्रवृत्त होता है, प्रत्यभिज्ञान भी इसके अनुसार प्रमाण नहीं रहेगा, क्योंकि वह भी स्मृति और प्रत्यक्ष से जाने हुए विषय में ही प्रवृत्ति करता है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान के अप्रमाण ठहरने पर उसी प्रभाकर के यहां पर श्रात्मा, शब्द आदि में नित्यपना कैसे सिद्ध होगा, क्योंकि नित्यता सिद्ध करनेवाला प्रत्यभिज्ञान ही है, इस पर प्रभाकरने युक्ति दी है कि पूर्वोत्तर अवस्था में व्यापि ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान का विषय नवीन ही है सो यह युक्ति भी छिन्नभिन्न हो जाती है। क्योंकि वह एकत्व उन दो अवस्थाओं से भिन्न तो है नहीं, तथा स्मृति तर्क आदि भी प्रत्यभिज्ञान के समान प्रमाण सिद्ध होने से प्रभाकर की मान्य प्रमाणसंख्या का व्याघात होता है । उनके प्रमाण के विषय में दिये गये प्रदुष्टकारणारब्धत्व, लोकसंमत आदि विशेषणों का भी विचार किया गया है, अन्त में यही प्रकट किया गया है कि प्रमाण का विषय सर्वथा अपूर्वार्थ न मानकर कथंचित् अपूर्वार्थं मानना चाहिये, प्रमाणसंप्लव भी जैन दर्शन की तरह सबने किसी न किसी रूप से माना ही है, और यदि उसे न माना जावे तो इष्टतत्त्व की सिद्धि नहीं होती है । प्रमाण संप्लव अनेक विषयों में देखा जाता है, अनुमान के द्वारा जानी हुई अग्नि पुनः प्रत्यक्षज्ञान से जानी जाती है | आगम या गुरु आदि से किसी विषय को समझकर या ज्ञातकर पुन: उसीकी प्रत्यक्षादि प्रमाण से प्रतीति होती है, अतः प्रमाण का विषय कथंचित् पूर्वार्थ है, यह सिद्ध होता है । * सर्वथा पूर्वार्थ के खण्डन का सारांश समाप्त * १७८ Jain Education International * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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