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________________ अपूर्वार्थत्वविचारः १७७ क्वचित्कस्यचिदभ्यासोपपत्तेरित्यलं विस्तरेण परतः प्रामाण्यविचारे विचारणात् । लोकसम्मतत्वं च यथावद्वस्तुस्वरूपनिश्चयान्नापरम् । और उसे भी अदुष्टकारण से उत्पन्न होना चाहिये, उनका अदुष्टकारणारब्धत्व किसी अन्य ज्ञान और संवादक से और वहां भी वह किसी अन्य ज्ञान और संवादक से जाना जायगा, इस तरह से अनवस्था आवेगी ही, हम अनेकान्तवादी के यहां पर ये दोष नहीं आते हैं, क्योंकि जैसी की तैसी वस्तु को जानने वाले जो ज्ञान हैं उनमें अभ्यासदशा में तो बाधा का अभाव और अदुष्टकारणों से उत्पन्न होना ये दोनों ही अपने आप जाने जाते हैं, सिर्फ-अनभ्यासदशा में तो यह जानकारी दूसरे स्वत: अभ्यस्त ऐसे किसी ज्ञान से ही होती है ऐसा मानने से अनवस्था भी नहीं आती, क्योंकि किसी स्थान में किसी विषय में किसी न किसी ज्ञान का अभ्यास रहता ही है, इस बात का आगे विस्तारसे परत: प्रामाण्य के प्रकरण में विचार करेंगे, प्रमाण का "लोकसंमतं" विशेषण तो वस्तु का जैसा स्वरूप है उसका वैसा ही निश्चय करने रूप है, इसके सिवाय और कुछ नहीं है, इस प्रकार प्रभाकर भाट्ट के द्वारा माना गया सर्वथा अपूर्वार्थ का निरसन किया । * अपूर्वार्थ का प्रकरण समाप्त * अपूर्वार्थ के खंडन का सारांश अपना और अपूर्वार्थ का निश्चय करानेवाला जो ज्ञान है वही प्रमाण है, प्रमाण के लक्षण में आगत ज्ञान के स्व, अपूर्वार्थ और व्यवसायात्मक इतने' विशेषण हैं, इनमें से व्यवसायात्मक ज्ञान ही प्रमाण होता है इसका स्पष्टीकरण बौद्ध संमत निर्विकल्पक ज्ञान में प्रमाणता का खंडन करते समय किया जा चुका है, ज्ञान रूप विशेषण की सार्थकता कारक साकल्यादि प्रकरण में की है, अब अपूर्वार्थविशेषण का खुलासा आचार्य करते हैं-किसी दूसरे प्रमाण के द्वारा जिसका निश्चय नहीं हुआ है वह तथा निश्चय होने के बाद भी उसमें संशयादिरूप समारोप उत्पन्न हो गया है तो वह वस्तु अपूर्वार्थरूप ही है, तथा एक ही वस्तु में जो अनेक सामान्य विशेषात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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