________________
अपूर्वार्थ-विचार का पूर्वपक्ष
मीमांसकों का ऐसा कहना है कि जो सर्वथा अपूर्व वस्तु का ग्राहक होगा वही प्रमाण कोटि में स्थापित होना चाहिये, क्योंकि पिष्टपेषण की तरह जाने हुए पदार्थ का पुनः जानना बेकार है, धारावाहिक ज्ञानको हमने इसीलिये प्रमाण नहीं माना है, धाराप्रवाहरूप से जो अनेक ज्ञान एक ही वस्तु के जानने में प्रवृत्त होते हैं वे अपूर्वार्थ के ग्राहक नहीं हो सकते, अत: वे प्रमाणभूत भी नहीं हो सकते, प्रमाण में प्रमाणता तभी ठीक मानी जाती है कि जब वह किसी भी प्रमाण के द्वारा जाने हुए विषयमें प्रवृत्त न हो, कहा भी है
तत्रा पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम ।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसंमतम् ॥
जो सर्वथा अपूर्व अर्थका-नवीन वस्तु का ग्राहक हो, निश्चित, बाधारहित और निर्दोष कारण से उत्पन्न हुआ हो और लोकमान्य हो वही प्रमाण होता है, अत: प्रमाणमात्र अपूर्व अर्थ का ग्राहक होता है यह निश्चय हुआ।
* पूर्वपक्ष-समाप्त *
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org