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स्मृतिप्रमोषविचारः
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रूप है, इन्द्रिय संस्कार आदिके कारण ऐसा ज्ञान पैदा होता है ? जैनाचार्यने इस मंतव्य का खण्डन इस प्रकार किया है कि सर्व प्रथम यह सोचना है कि "स्मृति प्रमोष" इस पदका क्या अर्थ है ? स्मृतिका अभाव अन्य की झलक, विपरीताकार वेदन, अतीतका वर्तमानसे ग्रहण, अनुभवके साथ क्षीर नीरवत अविवेक से उत्पाद, क्या ये स्मृतिप्रमोष पदके अर्थ हैं ? स्मृतिका प्रभाव स्मृतिप्रमोष है ऐसा प्रथम पक्ष का कहना गलत है, क्योंकि रजतकी स्मृति तो विपर्यय ज्ञानी को है ही। अन्यावभासको स्मृति प्रमोष कहे तो सारे ज्ञान स्मृति प्रमोष होंगे। विपरीताकार वेदनको स्मृति प्रमोष कहो तो जैनकी विपरीत ख्याति ही प्रसिद्ध होती है । इसी प्रकार प्रागेके विषयमें भी समझना चाहिये, प्रभाकर यदि इस ज्ञानको स्मृति प्रमोष रूप मानते हैं तो उनका स्वतः प्रामाण्यवाद खण्डित होता है । अंतमें "इदं रजतं' इत्यादि ज्ञान विपरीत ख्याति रूप ही सिद्ध होते हैं। इन्द्रिय दोष, वस्तुकी सदृशता, कुछ प्रकाशका हलकापन इत्यादि कारणों से विपरीत ज्ञान पैदा होता है । इसी असत्य ज्ञानका व्यवच्छेद करने के लिये प्रमाणके लक्षण में “व्यवसायात्मकं" यह विशेषण दिया गया है ।
* स्मृतिप्रमोष खण्डनका सारांश समाप्त *
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