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अपूर्वार्थत्वविचारः
तेनापूर्वार्थविशेषणेन धारावाहिविज्ञानं निरस्यते नन्वेवमपि प्रमाणसम्प्लववादिताव्याघात: प्रमाणप्रतिपन्नेऽर्थे प्रमाणान्तरा प्रतिपत्तिः; इत्यचोद्यम् ; अर्थपरिच्छित्तिविशेषसद्भावे तत्प्रवृत्तेरप्यभ्युपगमात् । प्रथमप्रमाण प्रतिपन्ने हि वस्तुन्याकारविशेष प्रतिपद्यमानं प्रमाणान्तरम् अपूर्वार्थमेव वृक्षो न्यग्रोध इत्यादिवत् । एतदेवाह
अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ।। ४ ।।
भाट्ट का ऐसा कहना है कि आपने जो अपूर्वार्थ विशेषण के द्वारा धारावाहिक ज्ञान का निरसन किया है सो उससे आपके मान्य प्रमाणसंप्लववाद का व्याघात होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के द्वारा जाने हुए विषय में दूसरे अनुमान आदि प्रमाणों की प्रवृत्ति होना इसका नाम प्रमाणसंप्लव है, प्रमाणसंप्लव ग्रहण हुए पदार्थको ही ग्रहण करता है, अपूर्वार्थ को नहीं, अत: इसका आप अब निर्वाह कैसे कर सकेंगे ?
जैन-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जहां अर्थ-परिच्छित्ति की विशेषता होती है वहां उसी एक विषय में प्रवृत्त होने पर भी ज्ञान में हमने प्रमाणता मानी है, देखो-प्रथम प्रमाण के द्वारा जाने गये पदार्थ को यदि विशेषाकार रूप से जानने के लिये वहां दूसरा प्रमाण प्रवृत्त होता है तो वह विषय उसके लिये अपूर्वार्थ ही है, जैसे-प्रथम प्रमाण ने इतना ही जाना कि यह वृक्ष है, फिर दूसरे प्रमाण ने उसे यह वृक्ष वट का है ऐसा विशेषरूप से जाना तो वह ज्ञान प्रमाण ही कहा जायगा, क्योंकि द्वितीय ज्ञान के विषय को प्रथम ज्ञान ने नहीं जाना था, अतः वृक्ष सामान्य को जानने वाले ज्ञान की अपेक्षा वट वृक्ष को जानने वाले ज्ञान के लिये वह वट वृक्ष अपूर्वार्थ ही है । यही बात
अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥ ४ ॥
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