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___स्मृतिप्रमोषविचारः
ननु शुक्तिकायाम् इदं रजतम्' इति प्रतिभासो विपर्ययः, न चासौ विचार्यमाणो घटते । नहि 'इदं रजतम्' इत्येकमेवेद ज्ञानं कारणाभावात् ; तथाहि-न दोषैश्चक्षुरादीनां शक्त: प्रतिबन्धः क्रियते, कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न हि दुष्ट। यवा विपरीतं कार्य माविर्भावयन्ति । अत एव प्रध्वंसोऽपि । किञ्च, "सम्बद्ध वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना" । । मी० श्लो. प्रत्यक्ष० श्लो० ८४ ) रजतस्य चासम्बद्ध
प्रभाकर-सीपमें “यह रजत है" इसप्रकारका प्रतिभास होना विपर्यय ज्ञान कहलाता है, किन्तु इसपर विचार करे तो घटित नहीं होता, "यह रजत है" इस प्रकारका जो ज्ञान है वह एक नहीं है क्योंकि ऐसा एकत्वरूपसे प्रतिभास होने में कोई कारण नहीं दिखता है। चक्षु आदि इन्द्रियोंकी शक्तिका [काच कामलादि] दोषों द्वारा प्रतिबन्ध होता नहीं, यदि होता तो उनसे देखने आदि रूप कार्य जो “यह चांदी है" इत्यादिरूप उत्पन्न नहीं हो पाते, क्या जौ नामा धान्य खराब होनेपर भी विपरीत कार्य जो गेहूं आदिके अंकुरोंको उत्पन्न करेंगे ? अर्थात् नहीं करेंगे। विशेषार्थ जैन दार्शनिक विपर्यय ज्ञान होना मानते हैं वह ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञानमें विपरीतता का कोई भी कारण दिखायी नहीं देता है । चक्षु आदि इन्द्रियोंके सदोष होनेसे ज्ञान विपरीत हो जाय सो भी बात बनती नहीं, दोष तो कारणोंकी [ इन्द्रियोंकी ] शक्ति नष्ट करते हैं न कि विपरीत ज्ञानको पैदा करते हैं। देखो ! जौ का बीज पुराणा हुआ तो क्या वह गेहूंके अंकुरको पैदा करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा, उसीप्रकार इन्द्रियके दोष विपरीत ज्ञानको पैदा नहीं कर सकते हैं ।
तथा वे बीज नष्ट होनेपर भी अंकुररूप कार्य उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि कारणका अभाव हुआ है । तथा यह भी बात है कि चक्षु आदि इन्द्रियां सम्बन्धित एवं वर्त्तमान पदार्थों को ग्रहण करती हैं, यहां जो सीपमें रजतका प्रतिभास हो रहा
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