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________________ १५२ प्रमेयकमलमार्तण्डे त्वादवर्तमानत्वाच्च चक्षुषा कथं वर्तमानरजताकारावभास: स्यात् ? ज्ञाने च कस्यायमाकारः प्रथते ? न तावद्रजतस्य; अवर्तमानत्वात् । नापि ज्ञानस्यैव; स्वसिद्धान्तविरोधात् । किञ्च, अगृहीतरजतस्येदं विज्ञानं नोपजायते, अतिप्रसङ्गात् । गृहीतरजतस्य च 'तद्रजतमिदम्' इति स्यात्, इन्द्रियसंस्कारसादृश्यदोषैर्जन्यमानत्वात् । किञ्च, शुक्तिकायां रजतसंसर्गो न तावदसन् प्रतिभासते, खे खपुष्पसंसर्गवत् असख्यातित्वप्रसङ्गात् । नापि सन् ; रजतस्य तत्रासत्त्वात् । ततो ज्ञानद्वयमेतत् ‘इदम्' इति हि है वह रजत न वर्तमानमें मौजूद है न सीपसे सम्बन्धित है, फिर चक्षु द्वारा वर्तमान में मौजद सीपमें रजतका आकार कैसे प्रतिभासित हो रहा है ? यह जो ज्ञात हुआ है उसमें किसका आकार झलकता है ? यदि कहा जाय कि चांदीका प्राकार झलकता है, तो यह उत्तर ठीक नहीं, क्योंकि वह वर्तमानमें है ही नहीं । यदि कहा जावे कि ज्ञानका ही आकार प्रतिभासित होता है तो यह भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि जैन सिद्धान्तसे यह कथन विरुद्ध पड़ता है । ज्ञान में ज्ञानका ही आकार झलकता है ऐसा जैन मत में माना ही नहीं । और एक बात यह है कि यदि बिना रजतके ग्रहण किये यह विपर्यय ज्ञान होता है ऐसा कह नहीं सकते क्योंकि ऐसा कहने पर अतिप्रसंग दोष आता है, अर्थात् फिर तो तलघर आदिमें पले हुए व्यक्तिको भी बाहर आते ही "यह चांदी है" ऐसा ज्ञान होना चाहिये। यदि कहो कि रजतको जाननेवाले व्यक्तिको "यह रजत है" ऐसा ज्ञान होता है तो फिर उसको "वह रजत यह है" ऐसी झलक आनी चाहिये ? हम प्रभाकर तो इन्द्रिय संस्कार, सादृश्य, दोष इत्यादि कारणोंसे “यह रजत है" ऐसा ज्ञान होता है, इसप्रकार मानते हैं। विपर्यय ज्ञानके बारेमें हम प्रभाकरका कहना है कि सीपमें रजतका संसर्ग असत होकर प्रतिभासित नहीं होता यदि होता तो वह आकाशमें आकाश पुष्पके संसर्गकी तरह असत ख्याति रूप होता ! अर्थात् फिर इस विपर्यय ज्ञानको असत ख्याति रूप मानते किन्तु यह मान्यता हम प्रभाकरको इष्ट नहीं है । तथा वह रजतका संसर्ग सत होकर भी प्रतिभासित नहीं होता, क्योंकि वहां रजतका अभाव है अत: 'इदं रजतं" इस ज्ञानको दो रूप मानना चाहिये "इदं" यह एक ज्ञान है, और "रजतं" यह दूसरा ज्ञान है, इनमें जो इदं अंश है वह तो सामने रखे हुए अर्थका प्रतिभासरूप प्रत्यक्ष ज्ञान है, और "रजतं" ऐसी जो झलक है वह पहले देखे गये रजतका स्मरण रूप ज्ञान है। सो ऐसा यह प्रतिभास सादृश्य आदि किसी दोषके निमित्तसे होता है। अत: “इदं रजतं" ऐसा ज्ञान स्मरण रूपसे वहां झलकता नहीं है बस ! इसीलिये हम प्रभाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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