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________________ विपर्ययज्ञाने प्रख्यात्यादिविचार: १४५ स्त्येव, अन्यथा विद्य दादेरपि सत्त्वसिद्धिर्न स्यात् । तस्मात्प्रसिद्धार्थख्यातिरेव युक्ता; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; यथावस्थितार्थ गृही तित्वाविशेषे हि भ्रान्ताऽभ्रान्तव्यवहाराभावः स्यात् । अपि चोत्तरकाल मुदकादेरभावेऽपि तचिह्नस्य भूस्निग्धतादेरुपलम्भः स्यात् । न खलु विद्य दादिवदुदकादेरप्याशुभावी निरन्वयो विनाशः क्वचिदुपलभ्यते । सर्वतद्देशद्रष्ट दृरणामविसंवादेनोपलम्भश्च विद्यु - दादिवदेव स्यात् । बाध्यबाधकभावश्च न प्राप्नोति; सर्वज्ञानानामवितथार्थविषयत्वाविशेषात् । आदिका भी असत्व मानना होगा, क्योंकि वह भी उत्तर काल में प्रतीत नहीं होती है, इसलिये विपर्यय ज्ञानका मतलब प्रसिद्धार्थ ख्याति ही करना चाहिये ! अर्थात् विपर्यय ज्ञानका जो विषय है वह प्रतिभासमान होनेसे सत्यभूत है ऐसा मानना चाहिये । जैन-यह कथन भी अयुक्त है, यदि ऐसा माना जाय अर्थात् सभी ज्ञानोंको यथावस्थित पदार्थका ग्राहक माना जाय तब तो भ्रान्त और अभ्रान्त ज्ञानका जो व्यवहार देखा जाता है वह समाप्त हो जायगा। दूसरी बात यह है कि तुमने कहा कि जब तक वह ज्ञान [ सीपमें चांदीका प्रतिभासरूप विपरीत ज्ञान ] उत्तर कालमें बाधित नहीं होता तब तक उस विपर्ययका विषय सत्य ही है ? सो यदि ऐसी बात है तो मरीचिकामें जलका ज्ञान होने पर पीछे उत्तर कालमें जलका अभाव भले ही हो जाय किन्तु उसके चिह्न स्वरूप जमीनका गीला रहना आदि कुछ तो दिखायी देना चाहिये ? जलका स्वभाव बिजलीके समान तत्काल समूल नष्ट होनेका तो है नहीं, तथा सभी व्यक्तियोंको उस मरीचिकामें बिना विवादके जलकी उपलब्धि होनी चाहिये ? जैसे कि बिजली सबको दिखती है ? तथा उस मरीचि ज्ञानमें पीछे जो बाध्यबाधकपना आता है वह भी नहीं आना चाहिये ? क्योंकि आपकी मान्यतानुसार सभी ज्ञान समान रूपसे सत्य विषयको ही जानने वाले माने गये हैं। भावार्थविपर्यय ज्ञानका विषय क्या है ? इस पर विचार चल रहा है, माध्यमिक बौद्धने विपर्यय ज्ञानका विषय नास्तिरूप सिद्ध करना चाहा तब बीच में ही सांख्यने अपना मन्तव्य प्रदर्शित करते हुए कहा कि विपर्यय ज्ञानका विषय बिल्कुल सत्य-मौजूद पदार्थ ही है, जैसे कि सत्य ज्ञानोंका विषय वर्तमानमें मौजूद रहता है अन्तर इतना ही है कि उत्तर कालमें वह प्रतीत नहीं होता [तिरोभाव होनेसे ] है। प्राचार्यने समझाया है कि विपर्यय ज्ञानका विषय असत् ख्याति की तरह प्रसिद्धार्थ ख्यातिरूप भी नही है अर्थात् इस ज्ञानका विषय सद्र प भी नहीं है। यदि कहा जाय कि इस ज्ञानका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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