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________________ १४४ प्रमेयकमलमार्तण्डे तदयुक्तम् ; इत्यपर! । कस्मात् ? असतः खपुष्पादिवत्प्रतिभासासम्भवात् । भ्रान्तिवैचित्र्याभावप्रसङ्गश्च ; न ह्यसत्ख्यातिवादिनोऽर्थगतं ज्ञानगतं वा वैचित्र्यमस्ति येनानेकप्रकारा भ्रान्तिः स्यात् । तस्मात्प्रमाणप्रसिद्ध एवार्थो विचित्रस्तत्र प्रतिभाति । न चास्य विचार्यमाणस्यासत्त्वम् ; विचारस्य प्रतीतिव्यतिरेकेणाऽन्यस्यासम्भवात् । प्रतीत्यबाधितत्वाच; करतलादेरपि हि प्रतिभासबलेनैव सत्त्वम्, स च प्रतिभासोऽन्यत्राप्यस्ति । यद्यप्युत्तरकालं तथा सोऽर्थो नास्ति, तथापि यदा प्रतिभाति तदा तावद है क्योंकि स्वप्नावस्थाके ज्ञानमें झलके हुए पदार्थ जिस प्रकार प्रवास्तविक हैं, इसी प्रकार विपर्यय ज्ञानमें झलका हुआ पदार्थ भी आपकी मान्यतानुसार अवास्तविक है, अत: इन दोनों अवस्थाओंमें अंतरका प्रभाव नहीं हो इसके लिये ऐसा मानना चाहिये कि भ्रान्तज्ञानभी निविषय नहीं है। माध्यमिक-आप जैनने ठीक कहा है किन्तु एक बात यह है कि विपर्यय ज्ञानमें प्रतिभासमान अर्थका जब विचार किया जाता है तब वह सद्र प नहीं है किन्तु असद्रप है ऐसा ही दिखायी देता है । अतः विपर्यय ज्ञानका विषय असत ख्यातिरूपनास्तिरूप ही मानना चाहिये । सीपके टुकड़े में सीप आदिका प्रतिभास तो होता नहीं, प्रतिभास तो रजतका होता है किन्तु रजत ( चांदी) वहां सत रूपसे है नहीं। ___ सांख्य-माध्यमिकका यह कथन अयुक्त है, क्योंकि विपर्यय ज्ञानका विषय असत होता तो आकाशके फूल के समान उसे प्रतिभासित नहीं होना चाहिये, तथा भ्रान्तिकी विचित्रता अर्थात् अनेक तरहका भूम भी नहीं होना चाहिये, कारण कि असत ख्यातिको माननेवाले आपके यहां पदार्थोकी विभिन्नता तथा ज्ञानोंकी विचित्रता मानी नहीं गई है कि जिससे अनेक प्रकारकी भ्रान्ति हो सके । इसीलिए तो प्रमाण प्रसिद्ध ही पदार्थ विचित्र रूपसे अर्थात् विपर्यय रूपसे भ्रान्त ज्ञान में प्रतीत होता है ऐसा हम मानते हैं । इस ज्ञानके विषय जो सीप आदि हैं उनका विचार करे तो उनमें असत्व भी नहीं मालुम होता है, क्योंकि प्रतीति रूप ही विचार होता है, प्रतीतिसे न्यारा कोई विचार है नहीं, अतः इस ज्ञानका विषय प्रतीतिसे अबाधित होनेके कारण असत्वरूप नहीं है। हाथ में रखी हुई वस्तुका भी प्रतिभासके बलसे ही सत्व जाना जाता है. वह प्रतिभास विपर्यय ज्ञान में है ही । यद्यपि उत्तर कालमें वह प्रतिभासित पदार्थ वैसा दिखाई नहीं देता अर्थात जैसा प्रतिभासित हुआ वैसा प्रतीत नहीं होता तो भी जब तक प्रतिभासित होता है तब तक तो वह है ही। यदि ऐसा नहीं माने तो बिजली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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