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________________ विपर्ययज्ञाने प्रख्यात्यादिविचारः १४३ रितरमणीयम्; विशेषतो व्यपदेशाभावप्रसङ्गात् । यत्र हि न किञ्चिदपि प्रतिभाति तत्केन विशेषेण जलज्ञानं रजतज्ञानमिति वा व्यपदिश्येत ? भ्रान्तिसुषुप्तावस्थयोर विशेषप्रसङ्गश्च । न ह्यत्र प्रतिभासमानाव्यतिरेकेणान्योऽस्ति विशेषः । प्रतिभासमानश्च तज्ज्ञानस्यालम्बनमित्युच्यते । तन्नाख्यातिरेव विपर्ययः । सत्यमेतत् ; तथापि प्रतिभासमानोऽर्थः सद्र पो विचार्यमाणो नास्तीत्य सत्ख्यातिरेवासौ । शुक्तिकाशकले हि न शुक्तिकादिप्रतिभासः, किं तर्हि ? रजतप्रतिभास: । स च रजताकारस्तत्र नास्तीति; उस ज्ञानका विषय वह होती तो सत्य विषयको ग्रहण करनेके कारण विपर्ययज्ञान सत्य हो जाता । यदि कहो कि जलाकाररूपसे अर्थात् जलरूप से मरीचिका ग्रहण होता है इसलिये वह ज्ञान सत्य नहीं है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जलसे वह मरीचि भिन्न है, अर्थात् जलाकार रूपसे परिणत ज्ञान मरीचिका से भिन्न है । ऐसा नहीं देखा जाता है कि घटाकार परिणत ज्ञान अन्य पट आदि का ग्रहण करने वाला होता हो । अंत में यही निष्कर्ष निकलता है कि यह विपर्यय ज्ञान बिल्कुल निरालंब है [ विषय रहित है ] । जैन —- यह कथन अविचार रूप है, क्योंकि यदि विपर्यय ज्ञान निरालंब होता तो उसमें "यह विपर्यय ज्ञान है" ऐसा विशेष व्यपदेश (नाम) होता है वह नहीं होता । जिस ज्ञान में कुछ भी नहीं झलकता है तो फिर किस विशेषण द्वारा यह रजत ज्ञान है या जल ज्ञान है इत्यादि रूपसे उसका कथन कैसे हो सकता है ? तथा भ्रांत और निद्रित इन दोनों श्रवस्थानों में विपर्यय ज्ञानके निरालंब मानने पर कुछ भेद नहीं रहेगा | जैसे - भ्रांत ज्ञानमें प्रतिभासमान अर्थको छोड़कर और कोई विशेषता नहीं है, उसी प्रकार विपर्यय ज्ञानमें प्रतिभासमान जो अर्थ है वही उसका अवलंबन माना गया है, अतः विपर्यय ज्ञानको अख्याति रूप [ कुछ भी नहीं कह सकना रूप ] नहीं मानना चाहिये । भावार्थ - चार्वाक विपर्यय ज्ञानका विषय कुछ भी नहीं है ऐसा कहता है, इस पर आचार्य समझाते हैं कि विपर्ययका विषय अख्याति अर्थात् मात्र प्रभाव स्वरूप है तो उस विपरीत ज्ञानके रजतज्ञान, जलज्ञान, इत्यादि भेद कैसे हो सकते ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं । विपर्यय ज्ञानका विषय कुछ भी नहीं है ऐसा मानने से दूसरा दोष यह भी आता है कि भ्रान्त और सुप्तावस्था में कोई अन्तर नहीं रह जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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