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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
यदप्युच्यते- ज्ञानस्यैवायमाकारोऽनाद्यविद्योपप्लव सामर्थ्याद्बहिरिव प्रतिभासते । श्रनादिविचित्रवासनाश्च क्रमविपाकवत्यः पुंसां सन्ति तेनानेकाकाराणि ज्ञानानि स्वाकारमात्र संवेद्यानि क्रमेण भवन्तीत्यात्मख्यातिरेवेति; तदप्युक्तिमात्रम्; यतः स्वात्ममात्रसंवित्तिनिष्ठत्वे अर्थाकारत्वे च ज्ञानस्यात्मख्यातिः सिद्धच ेत । न च तत्सिद्धम्, उत्तरत्रोभयस्यापि प्रतिषेधात् । सर्वज्ञानानां स्वाकारग्राहित्वे च भ्रान्ताऽभ्रान्त विवेको बाध्यबाधकभावश्च न प्राप्नोति तत्र व्यभिचाराभावाविशेषात् । स्वात्म
विषय तो बिजली की तरह उत्तर काल में नष्ट होता है सो यह कथन गलत है, सभी पदार्थ बिजली की तरह तत्काल विलीन नहीं होते हैं । अतः सांख्यने विपर्यय ज्ञानका विषय सत्यभूत माना है वह ठीक नहीं है ।
विज्ञानाद्वैतवादी - सोपादिमें रजतादिका जो प्रतिभासरूप विपर्यय ज्ञान है वह मात्र ज्ञानका ही आकार है, किन्तु अनादि कालीन अविद्याके कारण ज्ञानसे बाहर हुए के समान प्रतीत होता है । अनादि अविद्याकी जो वासनायें हैं वे पुरुषोंमें क्रम - क्रमसे प्रगट होती हैं, इस कारण स्वाकार मात्र से जिनका संवेदन होता है वे ज्ञान क्रमशः अनेक आकारवाले होते हैं अर्थात् ग्राह्य-ग्राहक रूपमें उद्भूत होते हैं । अतः विपर्यय में आत्मख्याति अर्थात् ज्ञानका ही आकार है, बाह्य वस्तुका नहीं क्योंकि ज्ञानके सिवाय बाह्य वस्तु है नहीं ?
जैन - यह कथन भी अयुक्त है, ज्ञान अपने में ही निष्ठ है और वही अर्थाकार होता है यह बात सिद्ध होनेपर ही इस विपर्यय ज्ञानकी आत्मख्याति रूपसे सिद्धि होगी. किन्तु ये दोनों अर्थात् ज्ञानमें अपना ही आकार है तथा वह खुद ही बाह्य पदार्थोंके आकारोंको धारण करता है ये दोनों बातें ही सिद्ध नहीं हैं, क्योंकि आगें इन दोनों बातोंका खण्डन होनेवाला है । यदि सारे ही ज्ञान अपना आकार मात्र ग्रहण करते हैं तो समस्त ज्ञानोंका यह भ्रान्त ज्ञान है, और यह अभ्रान्त है, ऐसा विवेक और बाध्य - बाधकभाव बनेगा ही नहीं, क्योंकि ज्ञानोंका अपने स्वरूप मात्र में तो कोई व्यभिचार होता नहीं, अर्थात् आत्मस्वरूपको जाननेकी अपेक्षा समस्त ज्ञान प्रमाण भूत ही माने गये हैं । आकार सिर्फ ज्ञानमें ही निष्ठ है बाहरमें रजतादि नाम की कोई वस्तु नहीं है, तो फिर रजत संवेदन द्वारा वह रजत रूप प्रकार सुख संवेदन के समान अन्दर ही प्रतीति में प्रायेगा, बाहरमें स्थित होने रूपसे प्रतीतिमें नहीं श्रायेगा । तथा जाननेवाला व्यक्ति भी उस पदार्थको ग्रहण करने के लिये प्रवृत्ति क्यों
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