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संशयस्वरूपसिद्धिः
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ननु व्यवसायात्मकविज्ञानस्य प्रामाण्ये निखिलं तदात्मकं ज्ञानं प्रमाणं स्यात्, तथा च विपर्ययज्ञानस्य धारावाहिविज्ञानस्य च प्रमाणताप्रसङ्गात् प्रतीतिसिद्धप्रमाणेतरव्यवस्थाविलोपः स्यात्, इत्याशङ्कयाऽतिप्रसङ्गापनोदार्थम् अपूर्वार्थ विशेषणमाह । अतोऽनयोरनर्थविषयत्वाविशेष ग्राहित्वाभ्यां व्यवच्छेदः सिद्धः । यद्वानेनाऽपूर्वार्थ विशेषणेन धारावाहिविज्ञानमेव निरस्यते । विपर्ययज्ञानस्य तु व्यवसायात्मकत्वविशेषणेनैव निरस्तत्वात् संशयादिस्वभावसमारोपविरोधिग्रहणत्वात्तस्य ।
शंका-प्रमाणका लक्षण करते समय श्री माणिक्यनंदी प्राचार्यने जो व्यवसायात्मक विशेषण दिया है वह ठीक नहीं, क्योंकि जो व्यवसायात्मक ज्ञान है वह प्रमाण है ऐसा कहेंगे तो जितने भी व्यवसायात्मक ज्ञान हैं वे सबके सब प्रमाण स्वरूप बन जायेंगे, इस तरहसे तो विपर्ययज्ञान, तथा धारावाहिक ज्ञान इत्यादि ज्ञानमें भी प्रामाण्य मानना होगा, फिर प्रतीति सिद्ध प्रमाणज्ञान और प्रप्रमाणज्ञान इस तरह ज्ञानोंमें व्यवस्था नहीं रह सकेगी ?
समाधान-इस अति प्रसंग को दूर करनेके लिये ही सूत्र में अपूर्वार्थ विशेषण दिया है, इस विशेषणसे विपर्यय ज्ञान तथा धारावाहिक ज्ञान इन दोनोंका निरसन हो जाता है, क्योंकि विपर्यय ज्ञानका विषय वास्तविक नहीं है और धारावाहिक ज्ञानका विषय अविशेष मात्र है । अथवा अपूर्वार्थ विशेषण द्वारा धारावाहिक ज्ञानका प्रमाणपना खण्डित होता है और व्यवसायात्मक विशेषण द्वारा विपर्यय ज्ञानका प्रमाणपना निरस्त होता है। क्योंकि व्यवसायात्मक ज्ञान तो संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित ही वस्तुको ग्रहण करता है [ जानता है ] ।
यहां पर कोई तत्वोपप्लववादी कहता है कि संशयादि ज्ञान तो कोई है नहीं फिर आप जैन व्यवसायात्मक विशेषण द्वारा किसका खंडन करेंगे ? आप यह
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