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________________ १३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे यदि शब्दब्रह्म का परिणाम जगत् माना जावेगा तब तो ऐसी आशंका होना स्वाभाविक हो जाता है, कि शब्दब्रह्म जब जगतरूप परिणमित होता है तब वह अपने स्वरूप को छोड़कर जगतरूप में परिणमित होता है या नहीं छोड़कर परिणमित होता है ? यदि अपने स्वरूप को छोड़कर वह जगत् रूपसे परिणमित होता है तो सोचो फिर उसमें अनादि निधनता कहां रही, यदि स्वरूपको नहीं छोड़कर वह जगतरूपमें परिणमित होता है तो पदार्थ शब्दब्रह्ममय होने से बहिरे को भी शब्दश्रवण-शब्द का सुनना होना चाहिये, क्योंकि वह शब्द से तन्मय हुए पदार्थ को देखता जानता तो है ही। इसी तरह जगत को जब शब्दब्रह्म का विवर्त माना जाता है तब वह जगत रूप विवर्त-पर्याय यदि उससे भिन्न हुई मानी जावेगी तो द्वैतापत्ति प्रानेसे अद्वैत की समाप्ति हो जावेगी, यदि इस आपत्ति से बचने के लिये शब्दाद्वैतवादी ऐसा कहें कि है तो वास्तव में अद्वैत ही; परन्तु जो शब्दब्रह्म से भिन्न नानारूप पदार्थ दिखते हैं उसमें अविद्या कारण है, अविद्या के प्रभाव से ही ये नानारूपता पदार्थ माला में दिखती है, यदि ऐसा न होता तो जो योगी जन हैं उन्हें भी यह नानारूपता पदार्थों में दिखनी चाहिये-पर वे तो एक शब्दब्रह्म का ही दर्शन करते हैं सो ऐसा कहना स्वयं के सिद्धान्त का घातक बनता है, क्योंकि ऐसा यह कथन द्वत का ही साधक बनता है, क्योंकि वहां भी तो यही प्रश्न हो सकता है कि क्या वह अविद्या ब्रह्म से भिन्न है ? यदि है तो द्वैत सिद्ध होता है, एक शब्दब्रह्म और दूसरी अविद्या द्वैत का अर्थ भी तो यही है कि "द्वाभ्यामितंद्वतं"- । शब्दमय पदार्थ के मानने पर आपको यह सोचना होगा कि गिरि जैसा छोटा शब्द पहाड़ जैसे विशाल का वाचक कैसे हो सकेगा, और उस पहाड़ में अपनी विशालता को छोड़ "गिरि शब्द" जैसी अल्पता के आ जाने की भी आपत्ति क्यों नहीं आवेगी।। ___ यदि शब्दमय पदार्थ होता तो विचारिये-नारिकेल द्वीप निवासी व्यक्तिको शब्दसंकेत ग्रहण किये बिना ही "घट' शब्द कम्बुग्रीवादिमान् घट का वाचक होता है ऐसा अर्थ बोध क्यों नहीं हो जावेगा, फिर सङ्केत ग्रहण के वश से ही शब्दादिक वस्तु की प्रतिपत्ति में हेतुभूत होते हैं यह सर्वमान्य सिद्धान्त अपरमार्थभूत हो जावेगा, अत: प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित होने के कारण यह आपका शब्दाद्वैत सिद्धान्त प्रमाण भूत सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि न तो जगत् शब्दमय है और न ज्ञान ही शब्दमय है। * शब्दावत के निरसन का सारांश समाप्त * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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