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________________ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे ननु संशयादिज्ञानस्यासिद्धस्वरूपत्वात्क य व्यवसायात्मकत्व विशेषणत्वेन निरास: ? संशयज्ञाने हि धर्मी, धर्मो वा प्रतिभाति ? धर्मी चेत्; स तात्त्विकः, तात्त्विकोवा ? तात्त्विकश्च ेत्; कथं तदुद्धः संशयरूपता तात्त्विकार्थ गृहीतिरूपत्वात्करतलादिनिर्न (र्ण ) यवत् ? अथातात्त्विकः तथाप्यताविकार्थविषयत्वात् केशोण्डुकादिज्ञानवद् भ्रान्तिरेव संशयः । अथ धर्मः स स्थाणुत्वलक्षणः ; पुरुषत्व - लक्षण:, उभयं वा ? यदि स्थाणुत्वलक्षण:; तत्र तात्त्विकाsतात्त्विकयोः पूर्ववद्दोषः । श्रथ पुरुषत्वल - क्षण:; तत्राप्ययमेव दोषः । अथोभयम्; तथाप्युभयस्य तात्त्विकत्वातात्त्विकत्वयोः स एव दोषः । अथैकस्य तात्त्विकत्वमन्यस्यातात्त्विकत्वम् ; तथापि तद्विषयं ज्ञानं तदेव भ्रान्तमभ्रान्तं चेति प्राप्तम् । अथ सन्दिग्धस्तत्र प्रतिभासते; सोपि विद्यते न वेत्यादिविकल्पे तदेव दूषणम् । तन्न संशयो घटते । नापि विपर्ययस्तस्यापि स्मृतिप्रमोषाद्यभ्युपगमेनाव्यवस्थितेः । १४० बताइये कि संशय ज्ञानमें क्या झलकता है धर्म या धर्मी ? यदि धर्मी झलकता है तो वह सत्य है कि असत्य है ? सत्य है ऐसा कहो तो उस सत्य धर्मी को ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें संशयपना कैसे ? उसने तो सत्य वस्तुको जाना है ? जैसे कि हाथमें रखी हुई वस्तुका ज्ञान सत्य होता है । यदि उस धर्मीको असत्य मानो तो असत् को जानने वाले केशोण्डुक ज्ञानकी तरह संशय तो भ्रांतिरूप हुआ ? यदि दूसरा पक्ष माना जाय कि संशयज्ञानमें धर्म झलकता है, तब प्रश्न होता है कि वह धर्म क्या पुरुषत्वरूप है, अथवा स्थाणुत्वरूप है, अथवा उभयरूप है ? यदि स्थाणुत्वरूप है तो पुनः प्रश्न उठेगा कि सत है अथवा असत है ? दोनोंमें पूर्वोक्त दोष प्रावेंगे । पुरुषत्व धर्म में तथा उभयरूप धर्म में भी वही दोष आते हैं, अर्थात् संशयज्ञान में स्थाणुत्व, पुरुषत्व अथवा उभयरूपत्व झलके, उनमें हम वही बात पूछेंगे कि वह स्थाणुत्वादि सत है या असत ? सत है तो सत वस्तु बतलाने वाला ज्ञान झूठ कैसे ? और यदि वह स्थाणुत्व धर्म असत है तो वह ज्ञान भ्रांतिरूप ही रहा ? यदि कहा जाय कि एक धर्म [स्थाणुत्व ] सत है और एक पुरुषत्व ] प्रसत है, तब वह एक ही ज्ञान भ्रान्त तथा अभ्रान्त दोरूप हुआ ? यदि कहा जाय कि संशय में सन्दिग्ध पदार्थ [ ही झलकता है तो उस पक्ष में भी वह है या नहीं इत्यादि प्रश्न और वही दोष प्राते हैं इसलिये संशय नामका कोई ज्ञान नहीं है । विपर्यय नामका भी कोई ज्ञान नहीं है क्योंकि विपर्ययको स्मृति प्रमोषादि रूप माना है अतः उसकी कोई स्थिति नहीं है । जैन - यह तत्वोपप्लव वादीका कथन प्रसमीचीन है, क्योंकि संशय तो प्रत्येक प्राणीको चलित प्रतिभास रूपसे अपने आपमें ही झलकता है । संशयका विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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