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________________ १२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे जलाकारविकलाः स्थासकोशकुशूलादयस्तत्त्वतो न तन्मयाः, परमार्थतस्तदाकारपराङ मुखाश्च पदवाक्यादितो व्यतिरिक्ता गिरितरुपुरलतादयः पदार्थाः' इत्यनुमानतोस्य तद्व धुर्य सिद्धश्च । किच, शब्दपरिणामरूपत्वाजगतः शब्दमयत्वं साध्यते, शब्दादुत्पत्ता ? न तावदाद्यः पक्षः; परिणामस्यैवात्रासम्भवात् । शब्दात्मकं हि ब्रह्म नीलादिरूपतां प्रतिपद्यमानं स्वाभाविक शब्दरूपं परित्यज्य प्रतिपद्यत, अपरित्यज्य वा ? प्रथमपक्षे-अस्याऽनादिनिधनत्वविरोधः पौरस्त्यस्वभावविनाशात् । द्वितीय पक्षे तु-नीलादिसंवेदनकाले बधिरस्यापि शब्दसंवेदनप्रसङ्गो नीलादिवत्तदव्यतिरेकात् । यत्खलु यदव्यतिरिक्त तत्तस्मिन्संवेद्यमाने संवेद्यते यथा नीलादिसंवेदनावस्थायां तस्यैव नीलादेरात्मा, नीलाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्द इति । शब्दस्यासवेदने वा नीलादेरप्यसंवेदनप्रसङ्गः तादा जैन-यह कथन तो आपका तब सिद्ध माना जावे कि जब विश्व में शब्दमयता सिद्ध हो, विश्व में शब्दमयता तो प्रत्यक्ष से ही बाधित होती है, क्योंकि पद, वाक्य आदि से भिन्न ही गिरि, वृक्ष, पुर आदि जो पदार्थ हैं, वे शब्दाकार रहित हुए ही सविकल्पप्रत्यक्ष द्वारा अन्यन्त स्पष्ट रूपसे प्रतीति में आते हैं, देखो-जो जिस प्राकार से पराङ्मुख-पृथक-रूप में प्रतीत होते हैं वे यथार्थ में उनसे भिन्न ही होते हैं । जैसे जलाकार से रहित स्थास, कोश, कुशूलादि आदि पदार्थ, ये जलाकार से रहित होते हैं इसलिये जल से भिन्न होते हैं । तन्मय नहीं होते, इसी तरह गिरि आदि पदार्थ भी पद वाक्य आदि के आकार से पराङ्मुख हैं. अत: वे भी उनसे भिन्न हैं,-तन्मय नहीं हैं। ऐसे इस अनुमान के द्वारा पदार्थ शब्दानुविद्ध नहीं हैं-शब्दमय नहीं हैं ये सिद्ध हो जाता है । तथा आप जो जगत् में शब्दमयता सिद्ध करते हो सो हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि जगत् शब्दका परिणाम है इसलिये उसमें शब्दमयता है ? या वह शब्द से उत्पन्न होता है इसलिये उसमें शब्दमयता है ? प्रथम पक्ष इसलिये मनोरंजक नहीं हो सकता-अर्थात् वह इसलिये ठीक-न्याय संगत-नहीं माना जा सकता है कि शब्दब्रह्म में परिणाम होने की संगति साबित नहीं होती, अर्थात् सर्वथा नित्य उस शब्दब्रह्म में परिणाम-परिणमन-होना ही असंभव है। यदि आपके कहे अनुसार हम शब्दब्रह्म में इस प्रकार का परिणाम होना मान भी लें तो वहां यह जिज्ञासा जगती है कि वह शब्दब्रह्म जब जल नील आदि पदार्थरूप परिणमित होता है, उस समय वह अपने स्वाभाविक शब्दरूप का परित्याग कर उस रूप परिणमित होता है ? या बिना छोड़े ही वह उस रूप परिणमित होता है ? यदि वह अपने पूर्वस्वरूप को छोड़कर जलादिरूप परिणमित होता है तो उसमें अनादिनिधनता का अभाव प्रसक्त होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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