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________________ शब्दाढतविचारः १२६ तम्याविशेषात्, अन्यथा विरुद्धधर्माध्यासात्तस्य ततो भेदप्रसङ्गः । न ह्य कस्यैकदा एकप्रतिपत्त्रपेक्षया ग्रहणमग्रहणं च युक्तम् । विरुद्धधर्माध्यासेप्यत्र भेदासंभवे हिमवद्विन्ध्यादिभेदानामप्यभेदानुषङ्गः । किंच, असौ शब्दात्मा परिणामं गच्छन्प्रतिपदार्थभेदं प्रतिपद्यत, न वा ? तत्राद्य विकल्पे-शब्दब्रह्मणोऽनेकत्वप्रसङ्गः, विभिन्नानेकार्थस्वभावात्मकत्वात्तत्स्वरूपवत् । द्वितीयविकल्पे तु-सर्वेषां नीलादीनां क्योंकि इस स्थिति में उसके पूर्व स्वभाव का अभाव आता है । यदि इस दोष से बचने के लिये द्वितीय पक्ष का आश्रय लिया जाय तो नीलादिक पदार्थ के संवेदन कालमें वधिर पुरुष को भी उस नीलपदार्थगत शब्द का श्रवण होना चाहिये, क्योंकि वह नील पदार्थ शब्दमय है । यह नियम है कि जो जिससे अभिन्न होता है वह उसके संवेदन होते ही संविदित हो जाता है, जैसे कि वस्तुगत नीले रंग को जानते समय तदभिन्न नील पदार्थ भी जान लिया जाता है, नीलादिपदार्थ से आपके सिद्धान्तानुसार शब्द अभिन्न ही है, अत: वधिर पुरुष को नील पदार्थ जानते समय शब्द संवेदन अवश्य होना चाहिये । यदि शब्द का संवेदन नीलादिपदार्थ के संवेदन काल में वधिर को नहीं होता है तो नीलादि वर्ण का भी उसे संवेदन नहीं होना चाहिये। क्योंकि नील वस्तु के साथ नीलवर्ण के समान शब्द का भी तादात्म्य है, अन्यथा विरुद्ध दो धर्मों से युक्त होने से उस शब्दब्रह्म को उस नीलपदार्थ से भिन्न मानना पड़ेगा, कारणनीलादिपदार्थ के संवेदन काल में उसका तो संवेदन होता है और शब्द का नहीं, इस तरह एक ही वस्तु का एक ही काल में एक ही प्रतिपत्ता की अपेक्षा ग्रहण और अग्रहण मानना उसमें विरुद्ध धर्मों को अध्यासता का साधक होता है, अतः नीलादि पदार्थ शब्दमय हैं ऐसा सिद्ध नहीं होता है, विरुद्ध दो धर्मों से युक्त हुए भी नील पदार्थ और "नील" इस प्रकार के तद्वाचक दो अक्षरवाले नीलशब्द में भेद नहीं माना जावे तो फिर हिमाचल और विंध्याचल आदि भिन्न पदार्थों में भी अभेद मानने का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। किंच-हम आपसे यह और पूछते हैं कि शब्दब्रह्म उत्पत्ति और विनाशरूप परिणमन करता हुआ क्या प्रत्येक पदार्थरूप भेद को प्राप्त करता है या कि नहीं करता है ? यदि वह शब्दब्रह्म जितने भी पदार्थ हैं उतने रूप वह होता है तो शब्द ब्रह्म में अनेकता का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि इस स्थिति में वह नील पीत आदि भिन्न २ अनेक स्वभावरूप परिणमित हुआ माना जायगा, जैसे कि विभिन्न अर्थों के स्वरूप अनेक माने जाते हैं। यदि द्वितीय पक्ष की अपेक्षा लेकर ऐसा कहा जावे कि १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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