________________
शब्दाद्वैतविचारः
१२७ __ अनुमानात्तषां तदनुविद्धत्वप्रतीतिरित्यपि मनोरथमात्रम् ; तदविनाभाविलिङ्गाभावात् । तत्सम्भवे वाऽध्यक्षादिबाधितपक्षनिर्देशानंतरं प्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वाञ्च । अथ जगतः शब्दमयस्वात्तदुदरवतिनां प्रत्ययानां तन्मयत्वात्तदनुविद्धत्वं सिद्ध मेवेत्यभिधीयते; तदप्यनुपपन्नमेव; तत्तन्मयत्वस्याध्यक्षादिबाधितत्वात्, पदवाक्यादितोऽन्यस्य गिरितरुपुरलतादेस्तदाकारपराङ मुखेरणव सविकल्पकाध्यक्षेणात्यन्तं विशदतयोपलम्भात् । 'ये यदाकारपराङ मुखास्ते परमार्थतोऽतन्मयाः यथा
के अनुसार भी शब्द के अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक तथा भाषात्मक और अभाषात्मक आदि अनेक भेद किये गये हैं । अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प ऐसे भी शब्द के दो भेद हुए हैं । उपर्युक्त शब्दाद्वैतवादी मान्य भेद कितनेक तो इसमें अन्तर्भूत हो सकते हैं । बाकी के भेद मात्र काल्पनिक सिद्ध होते हैं।
शब्दात वादी का यह कथन तो सर्वथा असत्य है कि समस्त विश्व शब्दमय है, इसी शब्दाद्वैत का मार्तण्डकार अनेक सबल युक्तियों द्वारा निरसन करते हुए कह रहे हैं कि शब्दमय पदार्थ हैं तो नेत्र द्वारा उन पदार्थों को ग्रहण करते समय शब्द प्रतीति में क्यों नहीं आता है, तथा ऐसी मान्यता में बाल, मूकादि व्यक्ति को किस प्रकार वस्तुबोध हो सकेगा। "शब्दमय जगत् है" यदि ऐसी तुम्हारी बात मान भी ली जावे तो इस बात को सिद्ध करने के लिये प्रमाण भी तो चाहिये, प्रत्यक्षादि प्रमाण तो इस बात को सिद्ध करने वाले हैं नहीं, क्योंकि बित्तारे प्रत्यक्ष की इतनी सामर्थ्य नहीं है जो वह शब्दमय जगत् की सिद्धि कर सके, यदि उनकी तरफ से ऐसा कहा जावे कि प्रत्यक्ष जगत् को शब्दमय सिद्ध नहीं कर सकता है, तो क्या अनुमान भी नहीं कर सकता है ? अनुमान तो इस बात का साधक है सो इस पर मार्तण्डकार ने विशद विचार किया है।
तथा-ज्ञानों में जो अनुमान प्रमाण द्वारा शब्दानुविद्धत्व सिद्ध करने का प्रयास किया गया है वह सब केवल मनोरथरूप ही है, क्योंकि अविनाभावी हेतु के बिना अनुमान अपने साध्यका साधक नहीं होता है, यदि कोई हेतु संभव भी हो तो वह हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष से दूषित ही रहेगा, क्योंकि जिसका पक्ष प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित होता है उसमें प्रयुक्त हुआ हेतु कालात्ययापदिष्ट दोषवाला कहा जाता है, जब नेत्रादि से होने वाले रूपादिज्ञान शब्दानुविद्ध नहीं हैं, फिर भी यदि सभी ज्ञानों को शब्दानुविद्ध ही सिद्ध किया जाता है तो वह प्रत्यक्षबाधित होगा ही ।
__शब्दाव तवादी-समस्त विश्व शब्दमय ही है, अतः उस विश्व के भीतर रहने वाले ज्ञान भी शब्द स्वरूप ही होंगे, इस प्रकार से ज्ञानों में शब्दानुविद्धता सिद्ध हो जावेगी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org