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प्रमेयकमलमार्तण्ड लोचनविज्ञानं कथं तद्विशिष्टतया स्वविषयमुद्योतयेत् ? न ह्यगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः दण्डाग्रहण दण्डिवत् । न च ज्ञानान्तरे तस्य प्रतिभासा द्विशेषणत्वम् ; तथा सति अनयोर्भेदसिद्धिः स्यादित्युक्तम् । अभिधानानुषक्तार्थस्मरणात्तथाविधार्थदर्शनसिद्धिः; इत्यप्यसारम् ; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात्-तथाविधार्थदर्शनसिद्धौ वचनपरिकरितार्थस्मरणसिद्धिः, ततश्च तथाविधार्थदर्शनसिद्धिरिति ।
का चेयमर्थस्याभिधानानुषक्तता नाम-अर्थज्ञाने तत्प्रतिभासः, अर्थदेशे तद्वदनं वा, तत्काले तत्प्रतिभासो वा ? न तावदाद्यो विकल्पः; लोचनाध्यक्षे शब्दस्याप्रतिभासनात् । नापि द्वितीयः; शब्दस्य श्रोत्रप्रदेशे निरस्तशब्दसन्निधीनां च रूपादीनां स्वप्रदेशे स्वविज्ञानेनानुभवात् । नापि तृतीय:; तुल्यकालस्याप्यभिधानस्य लोचनज्ञाने प्रतिभासाभावात्, भिन्नज्ञान वेद्यत्वे च भेदप्रसङ्ग इत्युक्तम् ।
जैन-यह कथन असार है, क्योंकि इस मान्यता में अन्योन्याश्रय दोष प्राता है, कारण कि शब्दरूप पदार्थ की प्रतीति होने पर वचन सहित पदार्थ है यह स्मरण में आवेगा और उसमें सिद्ध होने पर शब्दरूप पदार्थ का दर्शन होता है यह सिद्ध होगा।
अच्छा – यह बताईये कि पदार्थ में अभिधानानुषक्तता क्या है ? अर्थज्ञान में उसका प्रतीत होना ? या अर्थ के स्थान पर ही उसका वेदन (अनुभवन) होना ? या अर्थज्ञान के समय ही शब्द का प्रतिभास होना ? इस प्रकार के इन तीन विकल्पों में से प्रथम विकल्प अांख के द्वारा होने वाले ज्ञान में शब्द प्रतीत नहीं होता है इसलिये सिद्ध नहीं होता । दूसरा विकल्प शब्द तो कान से सुनाई देता है और जिसमें शब्द बिलकुल नहीं है ऐसे रूपादिस्वरूप पदार्थ का अपने प्रदेश में चाक्षुषादि ज्ञान के द्वारा अनुभव होता है इसलिये संगत नहीं होता है, पदार्थ के साथ शब्द का प्रतिभास होता है ऐसा तीसरा पक्ष भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि नाम-(शब्द) और अर्थ तुल्यकाल में भले ही हों, किन्तु उस शब्द का नेत्रजज्ञान में प्रतिभास नहीं होता है । अत: शब्द और रूपादिस्वरूप पदार्थ भिन्न २ हैं और वे भिन्न २ ज्ञानों के द्वारा जाने जाते हैं।
दूसरी बात यह है कि यदि सर्वथा शब्द सहित पदार्थ ही प्रत्यक्षज्ञान में झलकते हैं ऐसा स्वीकार किया जावे तो बालक और मूकादिव्यक्ति को पदार्थदर्शन कैसे हो सकेगा क्योंकि वे तो शब्द नामादि को जानते नहीं हैं। तथा मन में घोड़े आदि का विचार करते हुए व्यक्ति को गौदर्शन भी कैसे संभव हो सकेगा, क्योंकि उस समय उस व्यक्ति के गोशब्द का उल्लेख तो पाया नहीं जाता, कारण उस समय उसके ज्ञान में तो वह झलक नहीं रहा है, वह तो घोड़े का विचार कर रहा है, यदि
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