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शब्दाद्वै तविचारः
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कथं चैवंवादिनो | बालकादेरर्थदर्शनसिद्धि। तत्राभिधानाप्रतीतेः, अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनं वा ? न हि तदा गोशब्दोल्लेखस्तज्ज्ञानस्यानुभूयते युगपद्वृत्तिद्वयानुत्पत्ते रिति । कथं वा वाग्रूपताऽवबोधस्य शाश्वती यतो 'वाग्रूपता चेदुत्क्रामेत्' इत्याद्यवतिष्ठेत लोचनाध्यक्षे तत्संस्पर्शाभावात् ? न खलु श्रोत्रग्राह्यां वैखरीं वाचं तत् संस्पृशति तस्यास्तदविषयत्वात् । अन्तर्जल्परूपां मध्यमां वा; तामन्तरेणापि शुद्धसंविदोभावात् । संहृताशेषवर्णादिविभागानु (तु) पश्यन्ती, सूक्ष्मा चान्तर्ज्योतीरूपा वागेव न भवति; अनयोरर्थात्मदर्शनलक्षणत्वात् वाचस्तु वर्णपदाद्यनुक्रम लक्षणत्वात् । ततोऽयुक्तमेतत्तल्लक्षणप्रणयनम् - " स्थानेषु विवृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा |
वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्रारणवृत्तिनिबन्धना ।। १ ।। प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा वाक् प्रवर्तते ।
विभागानु (गा तु) पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा ॥ २ ॥
कहा जाय कि एक साथ दोनों श्रश्व विकल्प और गोदर्शन हो रहे हैं तो ऐसी मान्यता
दोनों की असिद्धि होने की प्रसक्ति होवेगी, क्योंकि एक ही काल में दो वृत्तियां छद्मस्थ के हो नहीं सकती तथा — आपने जो ऐसा कहा है कि ज्ञान में वचनरूपता शाश्वती है, यदि इसका उल्लंघन किया जावेगा तो ज्ञानरूप प्रकाश हो नहीं सकेगा इत्यादि, सो ऐसा कथन सत्य कैसे हो सकता है क्योंकि नेत्रजन्य ज्ञान में तो शब्द का संसर्ग होता ही नहीं है, कर्ण के द्वारा ग्रहण योग्य वचन रूप वैखरी वाक् लोचन ज्ञान का स्पर्श करती ही नहीं है, क्योंकि वह उसका विषय नहीं है । अन्तर्जल्पवाली मध्यमा वाक् का भी उस नेत्र ज्ञान द्वारा स्पर्शित होना संभव नहीं, उस मध्यमावाक् के विना भी शुद्ध रूपादि का ज्ञान होता ही है, संपूर्ण वर्ण पद आदि विभागों से रहित पश्यन्तीवाक् तथा अन्तर्ज्योति रूप सूक्ष्मा वाक् तो वाणीरूप होती ही नहीं, क्योंकि उन दोनों - पश्यन्ती तथा सूक्ष्मण को आप शब्दाद्वैतवादी ने अर्थों एवं आत्मा का साक्षात् कराने वाली माना है, यदि उन सूक्ष्मा और पश्यन्ती वाक् में शब्द नहीं है तो वह वाक् नहीं कहलावेगी, क्योंकि वाक् तो पद, वाक्य रूप हुआ करती है, इसलिये पशब्दाद्वतवादी के यहां जो वैखरी आदि वाक् का लक्षण कहा गया है वह सब असत्य ठहरता है, तालु आदि स्थानों में वायु के फैलने पर वर्णं पद आदि रूप को जिसने ग्रहण किया है ऐसी वैखरी वाक् बोलने वाले के हृदयस्थ वायु से बनती है || १ || प्राणवायु को छोड़कर अन्तर्जल्परूप मध्यमा वाक्, और वर्णादि क्रम से रहित प्रविभाग रूप पश्यन्तीवाक् है ||२||
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