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________________ १२३ शब्दाढतविचार: वा पताप्रतिपन्ना: पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते, भिन्नवान पताविशेषण विशिष्टा वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्त ; न हि लोचनविज्ञानं वा पतायां प्रवर्तते तस्यास्तदविषयत्वाद्रसादिवत्, अन्यथेन्द्रियान्तरपरिकल्पना. वैयर्थ्यम् तस्यैवाशेषार्थग्राहकत्वप्रसङ्गात् । द्वितीयपक्षेपि अभिधानेऽप्रवर्तमानं शुद्धरूपमात्रविषयं विषयों की ग्राहक बन जावेगी, दूसरा पक्ष-भी ठीक नहीं है, क्योंकि रूप को ग्रहण करनेवाला नेत्र ज्ञान यह पदार्थ शब्दरूप विशेषण वाला है यह नहीं जान सकता, कारण कि शब्द में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती है, वह केवल शुद्ध रूप मात्र को ही विषय करता है, रूप पदार्थ शब्द विशिष्ट है यह वह कैसे बता सकता है ? नेत्रजन्य ज्ञान से यदि ऐसा जाना जाता है कि पदार्थ शब्दरूप विशेषण से भिन्न है तो ऐसी मान्यता में पदार्थ के रूप का भी ग्रहण नहीं होगा, क्योंकि उसने पदार्थ के विशेषणरूप शब्द को जाना नहीं है, जैसे कि दण्ड को नहीं जानने पर यह दण्ड वाला है यह कैसे जाना जा सकता है, यदि कहा जाय कि दूसरे ज्ञान में ( कर्ण ज्ञान में ) तो वह शब्द रूप के विशेषण रूप से प्रतीत होता है, अतः शब्द पदार्थ का विशेषण बन जाता है, सो ऐसा कहना उचित नहीं है, कारण कि ऐसा मानने में तो उस शब्द और अर्थ में भेद ही सिद्ध होता है, यह अभी २ कहा ही जा चुका है कि जिनका भिन्न इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होता है वे पृथक् ही होते हैं, एक रूप नहीं होते। भावार्थ-शब्दाद्वैतवादी शब्द और उसके वाच्य अर्थों को परस्पर में अभिन्न मानता है, समस्त पदार्थ शब्दविशेषण से विशिष्ट ही हुआ करते हैं, क्योंकि इसी प्रकार से उनकी ज्ञान द्वारा प्रतीति होती है । तब प्रश्न होता है कि चाक्षुष प्रत्यक्ष से उस शब्द विशेषण का ग्रहण क्यों नहीं होता ? जब नेत्र से पदार्थ के रूप-नीले पीले आदि वर्णों-का ग्रहण होता है उस समय उसी पदार्थ से अभिन्न रहने वाले शब्द का ग्रहण भी नेत्र ज्ञान द्वारा होना चाहिये, यदि नहीं होता है तब रूप का ज्ञान भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि विशेषण को जाने बिना विशेष्य का ज्ञान नहीं होता है, जैसे कि दण्ड विशेषण को जाने विना दण्डेवाला देवदत्त नहीं जाना जाता है, इत्यादि, मतलब इसका यही है कि विशेषण को यदि हम जानते हैं तब तो उस विशेषण वाले विशेष्य को समझ सकते हैं अन्यथा नहीं, अत: पदार्थ शब्दविशेषण से विशिष्ट ही होते हैं यह बात सिद्ध नहीं होती। शब्दाद्वैतवादी– शब्द से मिला हुआ पदार्थ स्मरण में आता है अतः हम उसे शब्द रूप मानते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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