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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे इस जगत् में ऐसा कोई प्रत्यय-ज्ञान नहीं है जो शब्दानुगम के बिना हो जावे, समस्त ज्ञान शब्द से अनुविद्ध है- शब्दरूप से ही प्रतीति में आता है। वक्ता की बुद्धि में स्थित-जो बुद्धिरूप शब्द है वही मुख से प्रकट होता है वही श्रोतागण के कानों में प्रविष्ट होता है तथा वही शब्दब्रह्म श्रोताओं के मन में जाकर ज्ञानरूप बन जाता है । जागृत अवस्था में वचनव्यापार प्रकट ही है और निद्रित अवस्था में वह रहते हुए भी सूक्ष्म होने के कारण अप्रकट बना रहता है, कहा भी है "न तैविना भवेच्छब्दो नार्थो नापि चितेर्गति: ।” तथा-"वान पता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमशिनी ॥ १२४ ।। -वाक्यपदी-पृ० १२१ ज्ञान की जो सदा की रहने वाली वचनरूपता है यदि उसका उल्लंघन हो गया तो प्रकाश किसी को भी प्रकाशित नहीं कर सकता । क्योंकि उसी के द्वारा ही हर प्रकार का विचार विमर्श होता है। वचनात्मक अवस्था हो चाहे स्मति काल हो, चाहे अन्य कोई अवस्था या समय हो शब्दपने का अतिक्रम नहीं हो सकता समस्त व्यवहार का माध्यम तो शब्दरूपता ही है । अर्थक्रियासु वाक् सर्वान् समीहयति देहिनः । तदुत्क्रान्तौ विसंज्ञोऽयं दृश्यते काष्ठकुड्यवत् ॥ १२७ ।। - वाक्यपदी-पृ. १२४ वारूप ग्रहण किया गया चैतन्य ही सब प्राणियों को सभी प्रकार की सार्थक क्रियाओं में प्रवृत्त कराता है, यदि वह वाकप चैतन्य न रहे तो प्राणी काष्ठ अथवा दीवार की भांति चैतन्य हीन और निष्प्राण रह जाये, वाक् उसकी सचेतना का सचोट प्रमाण है। ग्राह्य ग्राहक भाव के संबंधमें इस प्रकार से कथन है "ग्राह्यत्वं ग्राहकत्वं च द्वे शक्ती तेजसो यथा । तथैव सर्वशब्दानामेते पृथगवस्थिते ॥ ५५ ॥ -वाक्यपदी पृ ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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