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शब्दाद्वैतवाद-पूर्वपक्षम्
११५ टीका--- "यथा ज्ञानरूपेण ज्ञेयरूपेण चाभिन्न मेकमेव वस्तु द्वाभ्यां रूपाभ्यां विभक्तमिवाभाति विषयरूपेण तयोरभिन्ना स्थितिश्च नैव हीयते ज्ञ यस्य ज्ञानाश्रितत्वात, तथैवाभिन्ने चैकात्मके शब्दे श्रु तिरूपतया, अर्थप्रतीतिरूपतया च शब्दस्य स्वरूपं तस्यैवार्थरूपादभिन्नमिवाभाति । अनयोः पृथक्ता प्रकाशनव्यापारे ह्येव प्रतीयते । अन्यथा बुद्धिस्थरूपेण तु शब्द एकात्मा ह्येव । अर्थरूपं तु स्वाश्रितम् ।" - टीका-वाक्य प० पृ० ४४ जिस प्रकार अद्वैतवादी वेदान्ती ज्ञान और ज्ञेय को एक ही वस्तु के भेदरूप मानते हैं अर्थात् एक ब्रह्मरूप वस्तु ही ज्ञान और ज्ञय इन दो रूपों में विभक्त होती है ऐसा मानते हैं क्योंकि ज्ञय तो ज्ञान के आश्रित है, उसी प्रकार शब्द तत्त्व भी एक ही है, किन्तु उसीके श्रुतिरूप और अर्थप्रतीति रूप दो भेद हो जाते हैं, शब्द में अर्थरूपता और स्वरूपता दोनों ही छिपी रहती हैं, पदार्थ का बोध करते कराते समय ज्ञान में स्थित जो शब्द तत्त्व है वही वर्णरूप, श्रोता के कान में ध्वनिरूप और घटादि पदार्थ रूप हो जाता है, अन्य समयों में अर्थात् शब्दोच्चारण काल के अतिरिक्त समय में वह शब्दतत्त्व मात्र बुद्धि रूप ही रहता है, विभक्त नहीं होता, अर्थ की सत्ता शब्द के विना संभव न हो सकने के कारण शब्द की उपयोगिता अर्थ के बिना शून्य हो जाने के कारण दोनों रूपों को भिन्न या पृथक् कहना अपनी ही भ्रान्ति का परिचय देना है।
अथायमान्तरो ज्ञाता सूक्ष्मे वागात्मनि स्थितः । व्यक्तये स्वस्य रूपस्य शब्दत्वेन विवर्तते ।। ११२ ।।
-वाक्यपदीः पृ० ११. शब्द तत्त्व एक और अखंड है, उसी का मन और वचन रूप से विभाजन होता है, सूक्ष्मवाक्स्वरूप में ज्ञाता ( या मन ) स्थित है, इसीको अन्दर में रहने के कारण "पान्तर" कहा गया है, वही ज्ञाता या मनरूप शब्द ब्रह्म अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिये शब्द-वचनरूप विवर्त-पर्याय को धारण करता है, इस प्रकार यहां तक यह प्रकट किया कि ज्ञय और ज्ञाता आदि रूप अवस्था तो शब्द ब्रह्म की है। अब यह प्रकट किया जाता है कि विश्व में जितने भी ज्ञान हैं, वे भी शब्दब्रह्मरूप हैं
न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दामुगमादुऋते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ॥ १२३ ॥
- वाक्यपदी पृ०-१२०
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