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शब्दाद्वैतवाद-पूर्वपक्षम्
जिस प्रकार प्रकाशमें ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व ऐसी दो शक्तियां रहती हैं उसी प्रकार शब्दों में ग्राह्य और ग्राहकत्व शक्तियां अन्तनिहित होती हैं । ग्राह्य का अभिप्राय यहां ज्ञेय से है और ग्राहक का अभिप्राय ज्ञानसे है, इस श्लोक द्वारा ग्राह्य ग्राहकपना शब्द रूप ही है यह विवेचित किया गया है । अर्थात् ग्राह्य-पदार्थ और ग्राहक-ज्ञान ये दोनों शब्दरूप ही हैं, ऐसा यहां बतलाया गया है।
नित्याः शब्दार्थ संबन्धा: समाभ्राता महर्षिभिः । सूत्राणां सानुतन्त्राणां भाष्याणां च प्रोतृभिः ।। २३ ।।
-वाक्यप. पृ० २१ शब्द और अर्थ का सार्वकालिक 'संबंध' है, अर्थात् जहां शब्द है वहां उसका पदार्थ-वाच्य है, और जहां पदार्थ है वहां शब्द भी अवश्य है । ऐसा सूत्रकारों ने, महषियों ने तथा भाष्यकारों ने कहा है । इस प्रकार ज्ञान ज्ञय, वाच्यवाचक, ग्राह्यग्राहक इत्यादि रूप संपूर्ण विश्व को शब्दमय सिद्ध करके अब शब्दब्रह्म में लीन होनेरूप जो मोक्ष है उसका उपाय बताया जाता है
प्रासन्नं ब्रह्मणस्तस्य तपसामुत्तमं तपः । प्रथमं छंदसामंगं प्राहुाकरण बुधा: ।। १ ।।
-वा प. पृ. ११ यदि उस परमब्रह्म का निकटवर्ती कोई है तो वह व्याकरण ही है, वही तपों में उत्तम तप है और वही वेदों का प्रथम अंग है । ऐसा बुद्धिमान पुरुष पुगवों ने प्रतिपादन किया है।
तद् द्वारमपवर्गस्य वाङ्मलानां चिकित्सितम् । पवित्रं सर्वविद्यानामधिविद्य प्रकाशते ॥ १४ ॥
-वा.प. पृ० १४ वह व्याकरण मोक्ष का द्वार अर्थात् उपाय है, उसी से वचन दोष दूर होते हैं, व्याकरण सर्वविद्यानों में प्रमुख और पवित्र है। सारांश इसका यही है कि व्याकरण तप है, वेदज्ञान का अंग है, विद्याओं में प्रमुख है और इसी से मोक्षप्राप्ति होती है । शब्दब्रह्म में लीन हो जाना इसी का नाम मोक्ष है,
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