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प्रमेयकमलमार्तण्डे
किञ्च, विकल्पाभिधानयोः कार्यकारणत्वनियमकल्पनायाम् किञ्चित्पश्यतः पूर्वानुभूततत्सदृशस्मृतिर्न स्यात् तन्नाम विशेषास्मरणात्, तदस्मरणे तदभिधानाप्रतिपत्तिः, तदप्रतिपत्तौ तेन तदयोजनम् तदयोजनात्तदनध्यवसाय इत्यविकल्पाभिधानं जगदापद्यत ।
किञ्च, पदस्य वर्णानां च नामान्तरस्मृतावसत्यामध्यवसायः, सत्यां वा? तत्राद्यपक्षे-नाम्नो
चन्द्र नहीं हैं फिर भी वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । वह प्रत्यक्ष भ्रांत है ऐसा कहो तो वैसे ही जो विकल्प पदार्थ के बिना होता है उसे ही भ्रांत मानना चाहिए? सबको नहीं इस प्रकार सविकल्पक ज्ञान अप्रमाण क्यों है इस बात का निश्चय करने के लिए बौद्ध से जैन ने ११ प्रश्न पूछे किन्तु बौद्ध किसी भी प्रकार से विकल्प को असत्य नहीं ठहरा सका, उल्टे उसको यहां बड़ी भारी मुह की खानी पड़ी है। हम जैन बौद्ध से पूछते हैं कि आप यदि विकल्प और शब्द में कार्यकारण का अविनाभाव मानते हैं तो किसी नीलादि को देखते हये पुरुष को उसी के समान पहले देखे हये पदार्थ का स्मरण नहीं आयेगा, क्योंकि उस वस्तु के नाम का स्मरण तो उसे होगा नहीं, नाम स्मृति बिना उसे वह जानेगा नहीं और जाने बिना यह शब्द इसका वाचक है, यह वस्तु इस शब्द के द्वारा वाच्य है-इत्यादि संबंध की योजना नहीं होगी, योजना के बिना उसका निश्चय नहीं होगा अर्थात् दृश्यमान नीलादि में विकल्प न होगा और इस प्रकार सारा संसार विकल्प तथा अभिधान (शब्द) से रहित हो जायेगा ।
भावार्थ-यदि शब्द और विकल्प इन दोनों में कारण कार्य भाव मानते हैं अर्थात् शब्द (नाम) कारण है और विकल्प उसका कार्य है ऐसा सर्वथा नियम बनाया जाय तो बहुत दोष आते हैं। देखो-किसी नील या पीत आदि वस्तु को कोई पुरुष देख रहा है उस समय उस पुरुष को पहले कभी देखे हुए सदृश नीलादि वस्तु स्मरण न हो सकेगी। क्योंकि उस पूर्वानुभूत वस्तु का नाम नहीं लिया है और न उस नाम का स्मरण ही है, इस प्रकार पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण न होने से इस वस्तु का यह नील
आदिक नाम है ऐसा वाच्य वाचक संबंध रहेगा नहीं उस संबंध के अभाव में उसका निर्णय नहीं होगा और इस तरह तो सारा संसार ही अविकल्प-विकल्प ज्ञान रहित हो जायेगा जो कि इष्ट नहीं है क्योंकि सभी को विकल्प ज्ञान अनुभव में आता है ।
अच्छा यह बतायो कि पद (गौ इत्यादि) और वर्णों का ( ग औः ) का ज्ञान उसी पद और वर्णों के दूसरे नामांतर याद होने पर होता है कि बिना याद हुए
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