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बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम्
१११ नामान्तरेण विनापि स्मृती केवलार्थाध्यवसायः किन्न स्यात् ? 'स्वाभिधानविशेषापेक्षा एवार्था निश्चयनिश्चीयन्ते' इत्येकान्तत्यागात् । द्वितीयपक्षे तु-अनवस्था-वर्णपदाध्यवसायेप्यपरनामान्तरस्यावश्यं स्मरणात् ।।
होता है ? यदि कहा जाय कि नामान्तर के बिना भी नाम की स्मृति होती है तो वैसे ही नाम के बिना पदार्थ का निश्चय क्यों न होगा ? क्योंकि यह एकान्त तो रहा नहीं कि अपने नाम की अपेक्षा लेकर ही विकल्प के द्वारा पदार्थ का निश्चय होता है। दूसरा पक्ष कहो कि उन पदादि का दूसरा नामांतर का स्मरण होने पर ही निश्चय होता है तो अनवस्था दोष पाता है अर्थात् एक पदादि की जानकारी के लिए दूसरे पदादि और उनके लिए तीसरे पदादि का स्मरण होना आवश्यक है । इस प्रकार बौद्ध का माना हुआ निर्विकल्प प्रमाण सिद्ध नहीं होता है ।
निर्विकल्प प्रत्यक्ष के खंडन का सारांश
बौद्ध निर्विकल्प प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। उनके यहां दो प्रमाण हैं प्रत्यक्ष और अनुमान । इनमें से अनुमान को तो पदार्थ का निश्चायक माना है किन्तु प्रत्यक्ष को नहीं, निर्विकल्प दर्शन के बाद यह नील है अथवा पीत है इस प्रकार का विकल्प पैदा होता है वह अप्रमारण है । [ अनुमान को लोक व्यवहार में प्रमाण माना है प्रत्यक्ष ही सर्वथा परमार्थ प्रमाण है ] जैनाचार्य ने इसका विस्तृत खंडन किया है। सबसे प्रथम यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि निर्विकल्प दर्शन कोई प्रमाण है तो उसकी प्रतीति क्यों नहीं होती ? एक साथ अर्थात् निर्विकल्प के साथ ही विकल्प पैदा होता है, अतः दोनों में एकत्व दिखाई देता है यह कथन ठीक नहीं क्योंकि दोनों भिन्न-भिन्न मालूम पड़ें तो एक का दूसरे में आरोप होकर एकत्व होता है ऐसा माना जाय किन्तु निर्विकल्प प्रतीत नहीं होता है । बौद्ध यह कहें कि निविकल्प के बाद ही अतिशीघ विकल्प उत्पन्न होता है अतः वह पहला प्रतीति में नहीं आता मात्र एकत्व का प्रतिभास होता है ? तो यह भी ठीक नहीं, ऐसे तो गधे के रेंकना, चिल्लाना ( गधा जो आवाज करता है, बोलता है ) इनमें भी लघुवृत्ति = शीघता होती है फिर उसमें एकत्व का प्रतिभास क्यों नहीं होगा ? मतलब गधा जो
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