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________________ बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् ततः प्रवृत्त रनुमानस्य प्रामाण्यम् ; प्रकृतविकल्पेऽप्यस्य समानत्वात् । शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासत्वादित्यप्यसमीचीनम् ; अनुमानेपि समानत्वात् । शब्दप्रभवत्वादित्यप्यसाम्प्रतम् ; शब्दाध्यक्षस्याप्रामाण्य. प्रसङ्गात् । ग्राह्यार्थं विना तन्मात्रप्रभवत्वं चासिद्धम् ; नीलादिविकल्पानां सर्वदार्थे सत्येव भावात् । कस्यचित्तु तमन्तरेणापि भावोऽध्यक्षेपि समानः द्विचन्द्रादिप्रत्यक्षस्यार्थाभावेपि भावात् । भ्रान्तादभ्रान्तस्यान्यत्वमत्रापि समानम् । आठवां पक्ष-स्वलक्षण को विकल्प विषय नहीं करता अत: उसमें प्रमाणता नहीं है यह कहना भी बिना विचारे है क्योंकि ऐसे तो अनुमान भी अप्रमाण ठहरेगाकारण-वह भी स्वलक्षण को विषय नहीं करता वह तो सामान्य को विषय करता है। बौद्ध~ यद्यपि अनुमान सामान्य को ग्रहण करता है, तो भी जानने योग्य चीज तो स्वलक्षण ही है अत: दृश्य और विकल्प अर्थात् स्वलक्षण और विकल्प के विषय भूत पदार्थों को वह अनुमान एकत्रित मानकर उस स्थूल रूप हुए पदार्थ में प्रवृत्ति करता है इसलिए हम लोग अनुमान को प्रमाण भूत स्वीकार कर लेते हैं। जैन-ऐसी बात विकल्प में भी घटित हो सकती है । मतलब जो बात आपने अनुमान के विषय में घटित करके बताई वैसी विकल्प के विषय में भी कही जा सकती है। देखिये यद्यपि विकल्प का विषय स्वलक्षण नहीं है, तो भी जो विकल्प आदि है उसको और दृश्य इन दोनों अर्थों को एकत्रित करके उनमें विकल्प करने वाले व्यक्ति की प्रवृति होती है । इसलिये अनुमान के समान विकल्प भो प्रमाण हैं । नवमा पक्ष-विकल्प शब्द संसर्ग के योग्य पदार्थ का प्रतिभासन करता है अतः वह अप्रमाण है ऐसा कहो तो अनुमान में भी शब्द संसर्गता है, उसे भी विकल्प की तरह अप्रमाण मानना होगा । दसवां पक्ष-विकल्प शब्द के द्वारा होता है अतः अप्रमाण है ऐसा मानें तो श्रावण प्रत्यक्ष को अप्रमाण मानना होगा । ग्यारहवां पक्ष-विकल्प्य ज्ञान ग्राह्य अर्थ के बिना ही शब्द मात्र से उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी असिद्ध है, क्योंकि सभी नीलादि विकल्प हमेशा पदार्थ के होने पर ही उत्पन्न होते हैं । यदि कहो कि कोई-कोई विकल्प बिना पदार्थ के भी होता है तो प्रत्यक्ष भी कभी-कभी पदार्थ के अभाव में होता है, जैसे दो चन्द्रादि का ज्ञान, दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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