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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्र० और (४) योगिप्रत्यक्ष, यही बात इन सूत्रों द्वारा प्रकट की गई है- "इन्द्रियज्ञानम्" ॥ ८ ॥ ( न्याय बि० पृ० ५५ )
स्वविषयान्तर विषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तर प्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम् ॥ ६ ॥ (पृ० ५६ ) सर्वचित्त चैत्यानामात्मसंवेदनं ।। १० । (पृ० ६२) भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तं योगिज्ञानं चेति ॥ ११ ॥ (न्या० बि० पृ० ६५)
इन सूत्रों का अर्थ इस प्रकार से है- इन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, (१) इन्द्रिय ज्ञान का जो विषय है उस विषय के अनन्तर होने वाला- अर्थात् जिसका सहकारी इन्द्रिय ज्ञान है उस इन्द्रिय ज्ञानरूप सहकारी कारण द्वारा उत्पन्न होने वाला जो मनोजन्य ज्ञान है वह मानस प्रत्यक्ष है, सर्व प्रथम इन्द्रिय ज्ञान होता है, वह जिस वस्तु से उत्पन्न हुआ है उसका समान जातीय जो द्वितीय क्षण है, उससे तथा इन्द्रिय ज्ञान से जायमान जो ज्ञान है वह मानस प्रत्यक्ष है, इस प्रकार इन्द्रिय ज्ञान का विषय और मानस प्रत्यक्ष का विषय पृथक् पृथक् है, यह द्वितीय प्रत्यक्ष है, समस्त चित्त और चैत्त पदार्थों का आत्म संवेदन स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, यह तीसरा प्रत्यक्ष है, वस्तु का ग्राहक चित्त अर्थात् विज्ञान है । ज्ञान की विशेष अवस्था को ग्रहण करने वाले सुख आदि चैत्त कहलाते हैं। मतलब सुख आदिक तो ज्ञान के ही अवस्था विशेष हैं, उनका संवेदन होना यह तीसरा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, चौथा योगी प्रत्यक्ष है, इसका स्वरूप ऐसा है कि यथार्थवस्तु की भावना जब परम प्रकर्ष को प्राप्त हो जाती है तो उस समय जो योगिजनों को प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है वह योगि प्रत्यक्ष है, भूतार्थ भावना का मतलब है कि सत्यपदार्थ का बार बार चिंतवन इस भावना के बल से चित्त में स्थित हुए पदार्थ का जो स्पष्टाकाररूप में झलकना होता है वही भूतार्थ भावना का प्रकर्ष कहा गया है, इस तरह भूतार्थभावना की चरम सीमा से उत्पन्न हुआ योगिज्ञान ही योगिप्रत्यक्ष कहा जाता है, इन चारों प्रत्यक्ष प्रमाणों का इस तरह से लक्षण प्रर्शित कर अब इनका "तस्य विषयः स्वलक्षणम्" (१२) विषय स्वलक्षण है यह वहां इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट किया गया है, स्वलक्षण का वाच्यार्थ स्पष्ट करने के लिये कहा गया है कि- 'यस्यार्थस्य सन्निधाना संनिधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत् स्वलक्षणम्” ॥ १३ ॥ (पृ० ७४) जिस वस्तु के निकट अथवा दूर होने से ज्ञान के प्रतिभास में स्फुटता या अस्फुटता का भेद होता है वह वस्तु स्वलक्षण है, अर्थात् वस्तु जब दूर देश में होती है तब ज्ञान में उस
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