SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्विकल्पप्रत्यक्षपूर्वपक्षः ८३ वस्तु का आकार अस्पष्ट रहता है- उस वस्तु विषयक ज्ञान अस्पष्टाकार वाला होता है, और जब वही वस्तु निकट देशस्थ हो जाती है तो उस वस्तु को विषय करने वाला ज्ञान स्पष्टाकारता को धारण कर लेता है, इस तरह जिस कारण से ज्ञान में स्फुटता और अस्फुटता- स्पष्टता और अस्पष्टता होती है वही वस्तु स्वलक्षण है, इसे यों भी कह सकते हैं कि वस्तु का जो असाधारण रूप है वही स्वलक्षण है, "तदेव परमार्थ सत्” (न्याय बि० पृ० ७६) जो अपने सन्निधान और असन्निधान से प्रतिभास में भेद कराने वाली वस्तु है वही परमार्थ सत् है, यही अर्थ क्रिया में समर्थ होती है, इस प्रकार से यह निश्चय होता है कि ज्ञान में स्पष्टता और अस्पष्टता को लाने वाली जो वस्तु है वह स्वलक्षण कहलाती है, और वही वस्तु का असाधारण या विशेष रूप कहलाता है, तथा वही वस्तु का सत्य स्वरूप है । यही स्वलक्षण प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय है, चूकि हम बौद्धों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण मान्य किये हैं, अतः प्रत्यक्ष के विषय की मान्यता का स्पष्टीकरण करके अब उन्हीं की मान्यता के अनुसार अनुमान के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण किया जाता है- “अन्यत् सामान्यलक्षणम् १६ (न्याय बि० पृ० ७६, सोऽनुमानस्य विषयः" न्या० बि० १७ पृ० ८०) वस्तु के स्वलक्षण या असाधारण रूप से जो अन्य कुछ है वह सामान्य लक्षण है और वह अनुमान का विषय है । प्रत्यक्ष निर्विकल्प-नाम, जाति, आकार आदि की कल्पना से रहित है इस बात की सिद्धि प्रत्यक्ष से ही होती है क्योंकि ऐसा कहा है कि "प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति । प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां विकल्पो नामसंश्रयः" ।। ___ -प्रमाणवार्तिक ३/१२३ संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनान्तरात्मना । स्थितो ऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साऽक्षजा मतिः ॥ -प्रमाण वा. ३/१२४ प्रत्यक्ष प्रमाण कल्पना से रहित है यह तो साक्षात् ही प्रत्येक आत्मा में अनुभव में आ रहा है, इससे विपरीत शब्द, नाम, जाति आदि जिसमें होते हैं वह प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्प है, सबसे पहिले तो निर्विकल्प ज्ञान ही होता है, सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy