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निर्विकल्पप्रत्यक्षपूर्वपक्षा
सामने आने पर अर्थात उसे विषय करने पर उसी के आकार का-नीलाकार का ज्ञान उत्पन्न होता है, यही प्रत्यक्ष-नील विषयक प्रत्यक्ष ज्ञान है, और इसी कारण इस ज्ञान को नाम जात्यादिक कल्पना से विहीन होने के कारण निर्विकल्प कहा जाता है, इस ज्ञान के बाद फिर यही विकल्प के द्वारा जाना जाता है कि यह नील का ज्ञान है, इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण के कल्पनापोढ पद का-विशेषण का विवेचन करके अब अभ्रान्त पद का विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि "तया रहितं तिमिराशुभ्रमण नौयान संक्षोभाद्यनाहित विभ्रमं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ॥ ६ ।। ( न्याय बि० पृ० ५१ ) जो ज्ञान पूर्वोक्त कल्पना से रहित है, तथा जिसमें तिमिर-रतोंधी-शीघ्रता से घूमना, नाव से जाना एवं बात आदि के प्रकोप के कारण भ्रम उत्पन्न होना ये सब नहीं हैं, वह प्रत्यक्ष है, इस प्रकार प्रत्यक्ष का लक्षण कल्पनापोढ और अभ्रान्त इन दो विशेषणों से विशिष्ट होता है, जिसमें केवल एक एक ही विशेषण होगा वह प्रत्यक्ष नहीं कहा जावेगा।
प्रत्यक्ष के सभी भेदों में यह लक्षण व्याप्त होकर रहता है। हम बौद्धों ने उन प्रत्यक्षादि प्रमाणों को स्वसंवित्ति स्वरूप भी माना है-जैसा कि कहा गया है -
"अप्रसिद्धोपलम्भस्य नार्थवित्ति: प्रसिद्धयति । तन्न ग्राह्यस्य संवित्तिर्गाहिकानुभवाहते ॥” (तत्त्वसंग्रह)
जिसकी स्वयं उपलब्धि प्रसिद्ध है- अर्थात् जो अर्थज्ञान अपने आपको नहीं जानता है-वह अर्थज्ञान किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता है, इसलिये हम लोगों ने ग्राह्य-अर्थ के ज्ञान को ग्राहक के अनुभव के बिना वह नहीं होता ऐसा माना है।
___ इस प्रकार अपने आपका अनुभव करता हुआ भी जो ज्ञान निर्विकल्पक होता है वही प्रत्यक्ष है यह बात सिद्ध हो जाती है, वह निविकल्पक प्रत्यक्ष चार प्रकार का होता है
"तच्च चतुर्विधं ॥ ७ ॥” ( न्या० पृ० ५५ ) जैसे- (१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) मनो विज्ञान प्र० (३) आत्म संवेदन
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