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निर्विकल्प प्रत्यक्ष का पूर्व पक्ष
प्रत्यक्ष प्रमाण या ज्ञान के विषय में विभिन्न मतों में विभिन्न लक्षण पाये जाते हैं, उनमें से यहां पर बौद्ध संमत प्रत्यक्ष का कथन किया जाता है, "तत्र प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम् ||४|| ( न्याय बिन्दु टीका पृ० ३२ ) जो ज्ञान कल्पना और भ्रान्ति से विहीन होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है । हम सब जीवों को जो वस्तुओं का साक्षात्कारी ज्ञान होता है वही प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है,
"कल्पनाया अपोढं प्रपेतं कल्पनापोढं, कल्पनास्वभाव रहितमित्यर्थः । अभ्रान्तमर्थक्रियाक्षमे वस्तुरूपेऽविपर्यस्तमुच्यते । अर्थक्रियाक्षमंच वस्तुरूपं सन्निवेशोपाधिवर्णात्मकम् । तत्र यन्न भ्राम्यति तद् अभ्रान्तम् " ( न्याय वि० टीका ३४ पृ० ) कल्पना से जो रहित होता है उसे कल्पनापोढ कहते हैं, अर्थात् कल्पनास्वभाव से रहित होना यही ज्ञानमें कल्पनापोढता है । अर्थक्रिया में समर्थ वस्तु के स्वरूप में जो ज्ञान अभ्रान्त - विपरीतता से रहित होता है वही ज्ञान की अभ्रान्तता है, वस्तुका स्वरूप अर्थक्रिया समर्थरूप सन्निवेशविशिष्टवर्णात्मक ही होता है, ऐसे उस वस्तु स्वरूप में जो ज्ञान भ्रान्त नहीं होता है वही अभ्रान्त कहा जाता है, कल्पना का लक्षण - " अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना" ॥५॥
- ( न्यायविन्दु पृ० ४२ )
जिसके द्वारा अर्थ का अभिधान किया जाता है वह अभिलाप कहलाता है, ऐसा वह अभिलाप वाचक शब्द होता है, एक ज्ञान में वाच्य अर्थ के आकार का वाचक शब्द के आकार के साथ ग्राह्यरूप में मिल जाना इसका नाम संसर्ग है, इस प्रकार जब एक ज्ञान में वाच्य और वाचक दोनों के प्राकार भासित होने लगते हैं तब वाच्य तथा वाचक संपृक्त हो जाते हैं, जिस प्रतीति में वाच्यार्थ के आकार का आभास वाचक शब्द के संसर्ग के योग्य होता है वह वैसी अर्थात् अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतिभासा कही गई है, मतलब यह हुआ कि जिस ज्ञान में, नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि की कल्पना नहीं है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है, उसमें केवल भाव होता है, वह भास " इदं नीलं " इस रूप से नहीं होता, अपितु नीलवस्तु के
नील आदि वस्तुओं का
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